सोमवार, 19 जनवरी 2009

पब्लिक है , ये सब जानती है .............!

आजकल अखबार समाचारों की बजाय रोचक जानकारियों से भरे रहते हैं । कल तक हर आम खास बन कर जीने के ख्वाब देखा करता था , लेकिन अब देश के अति विशिष्ट व्यक्तियों को आम बनने या कहें खुद को आमजन सा दिखाने का चस्का लग गया है । नए ज़माने के राजा भोज किसी गरीब की झोपडी में रात बिताकर किसी दलित के साथ खाना खाकर ना सिर्फ़ उसे बल्कि पूरे देश को निहाल कर रहे हैं ।

चुनावों से पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय को मोटर साइकल की सवारी ऎसी भाई कि वे गाहे बगाहे किसी भी गांव में पहुंच कर किसी की भी बाइक पर बैठ कर निकल पडते थे - जनता का हालचाल जानने । शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी लवाज़मे को दरकिनार कर मोटर साइकल से नाता जोडा । लेकिन दोबारा गद्दीनशीन होने के बाद ग्रामीण जनता को शिवराज सिंह के करीब फ़टकने का मौका फ़िलहाल तो मिलता नज़र नहीं आता ।

इसी तरह पेट्रोल की कीमतें बढने पर शिवराज ने हफ़्ते में एक दिन साइकल की सवारी का इरादा किया । देखा देखी कई मंत्रियों ने भी साइकल के हैंडल पकडने की मशक्कत शुरु कर दी । लेकिन अखबारों में फ़ोटो सेशन होते ही "शान की सवारी" को कहीं अटाले में डाल दिया गया । गाडियों के काफ़िले में बेतहाशा फ़ूंके जा रहे ईंधन और राजकोष की बर्बादी से परेशान होकर शर्माशर्मी में मुरली देवडा को ही किस्तों में ही सही पेट्रोल की कीमतों में कटौती करना ही पडा ।

सिलसिला यहीं नहीं थमता । देश के लाडले युवराज राहुल गांधी जब सिर पर तगारी रखकर मिट्टी उठाते हैं और दलित के घर खाना खाकर उसका जीवन धन्य करते हैं तो ये भी बडी भारी और ऎतिहासिक घटना होती है ।

कल यानी रविवार का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ किया जाएगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सादगी की मिसाल कायम कर जनता का तो मालूम नहीं , मगर मीडिया का "मन -मोह” लिया । ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए श्री सिंह आरटीओ कार्यालय पहुंचे । उन्होंने सभी औपचारिकताओं को भी हमारी आपकी तरह ही पूरा किया ।

दिलचस्प बात ये रही कि सरकारी महकमे में इस " आम नागरिक" का काम महज़ आधे घंटे में हो गया । देश के सरकारी कार्यालय वाकई मुस्तैद हो चुके हैं .......? शायद छठा वेतनमान लागू होने के बाद से कर्मचारियों में कार्पोरेट कल्चर पैदा हो गया है । पैसे की गर्मी ने उनके काम काज में चुस्ती फ़ुर्ती ला दी है । ऊंघते हुए दफ़्तरों में अब ज़िंदादिली और कर्मठता का नज़ारा देखने मिले इससे ज़्यादा सुखद भला क्या हो सकता है ?

खास लोगों का आमजनों से जुडाव कोई नई बात नहीं है । इंदिरा गांधी भी आदिवासियों के साथ लोक नृत्य कर उनके करीब जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं थीं । राजीव गांधी ने भी उसी परंपरा को आगे बढाया । पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम भी लोगों के बीच जाते थे और उनसे संवाद का सिलसिला बरकरार रखते थे ।

आज के दौर के राजनेताओं के लिए जनता के करीब जाने के ये मौके केवल खबरी दुनिया तक ही सिमट कर रह गये हैं । समाचारों में चर्चा और मुस्कराते हुए फ़ोटो सेशन कराकर ही ज़्यादातर नेता मान लेते हैं कि वे जनप्रिय हो चुके हैं । जनता लोकतंत्र की सूत्रधार है । शायद यही सोचकर नेता जनता के करीब जाने का आधा अधूरा प्रयास करते हैं लेकिन फ़िल वक्त जनता का रहनुमा कहलाने की इस कोशिश में ईमानदारी कम और शोशेबाज़ी ज़्यादा नज़र आती है । पब्लिक है , ये सब जानती है ............., अंदर क्या है , अजी बाहर क्या है , ये सब कुछ पहचानती है .....!

रविवार, 18 जनवरी 2009

न्याय के मंदिर में चढावे का दस्तूर

लोकतंत्र की मज़बूती के लिए न्यायपालिका का निष्पक्ष , ईमानदार और सत्यनिष्ठ होना ज़रुरी है । ऎसा किताबों में कहा गया है और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ये आदर्श स्थिति कही जा सकती है । लेकिन ऎसा तभी हो सकता है जब इंसाफ़ का तराज़ू थामने वाला हाथ किसी भी सूरत में कांपे नहीं , हर हाल में संतुलित रह सके । उसे थामने वाले दिलो - दिमाग की बजाय न्याय की बात कहने का साहस कायम रख सकें ।

अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की कहानी देश में इंसाफ़ की समृद्ध परंपरा को रेखांकित करती है । बताती है कि इंसाफ़ मानवीय सीमाओं से परे ईश्वर का आदेश है । यही वजह है जो हमने दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले पंच को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया । देश में आज भी न्यायाधीश का स्थान सर्वोपरि है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के चार स्तंभों में एक न्यायपालिका भी है जिस पर जनता का भरोसा आज भी कायम है । मगर सामाजिक विकृतियों ने इसे भी नहीं बख्शा है ।

हाल ही में देश के प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने कहा है कि जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं है । उनके मुताबिक देश में ऎसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत न्यायाधीशों के लिए संपत्ति घोषित करना अनिवार्य किया गया हो । गौरतलब है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आरटीआई दाखिल कर इस बाबत जानकारी मांगने पर इंकार के बाद अदालत में याचिका लगाई गई थी ।

ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल की वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2007 में कहा गया है कि भारत में 77 फ़ीसदी लोगों को न्यायपालिका के भ्रष्ट होने का यकीन है । रिपोर्ट के मुताबिक कानून से न्याय पाने के एवज़ में एक साल में 58 करोड अमरीकी डॉलर {2630 करोड रुपए } घूस दी जाती है । 61 प्रतिशत वकीलों , 29 फ़ीसदी अदालती कर्मचारियों और 5 फ़ीसदी बिचौलियों के ज़रिए यह धनराशि पहुंचाई जाती है ।

इससे पहले वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. पी. भरुचा ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि " देश के बीस फ़ीसदी जज भ्रष्ट हैं ।" इसके बाद देश भर में न्यायपालिका की शुचिता पर बहस छिड गई थी । लोगों का मानना है कि जजों के कामकाज और उनकी संपत्ति की जांच का अधिकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को सौंप दिया जाए तो अदालत के गलियारों में फ़ैले भ्रष्टाचार का वास्तविक स्वरुप आँखें फ़ाड देने वाला होगा ।

देश का दुर्भाग्य है कि सरकार और न्याय व्यवस्था में फ़ैले भ्रष्टाचार को देख कर भी इससे निजात पाने के तरीके खोजने की बजाय प्रधानमंत्री लाचारगी की मुद्रा में नज़र आते हैं । वर्ष 2008 में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा कि " सरकार और न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक चुनौती है ,जिससे हम जूझ रहे हैं ।" कुछ समय पहले अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बार कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी राज्यों की बार कॉउन्सिल्स से अपनी राय देने को कहा था ।

ये किसी भीषण त्रासदी से कम नहीं कि उच्च पदस्थ जजों के कथित दुराचरण के मामले तेज़ी से हाल के वर्षों में सामने आए हैं , लेकिन इनके खिलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हो सकी । आज तक यही होता आ रहा है कि "अदालत की अवमानना” का खौफ़ दिखा कर शिकायती आवाज़ों को तुरंत दफ़्न कर दिया जाता है । सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त हैं । ऎसे में आम लोगों में क्या वाकई न्याय के प्रति भरोसा कायम रह सकेगा ?

मौजूदा दौर लोकतंत्र के संकट का काल प्रतीत होता है । मीडिया पूरी तरह से बाज़ार की गिरफ़्त में है । चारों तरफ़ प्रेस की आज़ादी को लेकर शोरगुल सुनाई दे रहा है । लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि क्या वास्तव में देश में मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभा रहा है ...? प्रेस का जब देश की जनता या सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता ही नहीं रहा , तो लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने का दंभ भी क्यों ...? विधायिका और कार्यपालिका पहले ही जनता का भरोसा खो चुकी हैं । यही हाल अब इंसाफ़ के मंदिरों का हो चुका है ।

मेरे एक परिचित ने इस बारे में बेहद चुटीली लेकिन गंभीर टिप्पणी की । वो मानते हैं कि पहले प्रजातंत्र के चारों खंबे अलग - अलग थे । अब इन पर छत पड चुकी है । ये सब एकजुट हो चुके हैं । इससे स्तंभों को मज़बूती भी मिली है और सभी निश्चिंत होकर एक दूसरे के हितों का भरपूर ख्याल रख रहे हैं । इस तरह देश का संभ्रांत वर्ग "जनता के माल" पर मिल बांट कर हाथ साफ़ कर रहे हैं । त्राहि - त्राहि करती जनता का ना तो किसी को ख्याल है और ना ही कोई डर ............।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

एक मुल्क - दो कानून

हाल ही में मेरी एक परिचित से लंबे समय बाद मुलाकात हुई । बातचीत धर्म की आड में दूसरी - तीसरी शादी तक पहुंची । पहली बीवी के रहते कानून के फ़ंदे से बचने के लिए मज़हब बदलकर दोबारा शादी करने के मामले आजकल अक्सर सामने आते हैं । मामला किसी नामचीन शख्स से जुडा हो तो सुर्खियों में रहता है , वरना ऎसी घटनाएं कानाफ़ूसी तक ही सिमट कर रह जाती हैं । अपना परिवार गवां चुकी औरत का दुख दर्द , उसकी सिसकियां , उसकी पीडा घुटकर रह जाती है । सोचने वाली बात ये है कि एक ही देश के नागरिकों के लिए कानून अलग - अलग क्यों ....?

शायद एक डेढ साल पुरानी बात होगी । किसी प्रादेशिक चैनल पर जबलपुर की एक नवयुवती को सिसकते देखा । अदालत के बाहर खडी यह युवती कानून से न्याय मांगने आई थी , लेकिन आंख पर पट्टी बांधे न्याय की तराज़ू थामने वाली देवी ने अपने हाथ संविधान से बंधे होने की लाचारगी जता दी । मामला कुछ यूं था कि युवती के पति का कहना था कि उसने तलाक दे दिया है , लेकिन पत्नी इससे बेखबर थी और वह पति के साथ ही रहना चाहती थी ।

परिवार परामर्श केन्द्र की कोशिशें नाकाम होने पर वह न्याय की गुहार लगाने के इरादे से कानून का दरवाज़ा खटखटाना चाहती थी । युवती रो - रो कर एक ही बात कह रही थी कि ये कैसी अदालत है , जिसमें उसके लिए न्याय नहीं ....? अपने ही देश में बेगानेपन का एहसास लिए मायूस होकर लौट रही उस मुस्लिम युवती की निगाहों में सैकडों सवाल थे । वो पूछ रही थी कि आखिर वो भी दूसरे धर्म की औरतों की तरह ही अदालत से अपना हक क्यों नहीं पा सकती ...?

एक ही गांव , एक ही मोहल्ले में रहने वाली सुनीता और सबीना को पढने - लिखने , आगे बढने के लिए समाज में समान अवसर दिए जा रहे हैं तो जीवन जीने के व्यक्तिगत अधिकारों में भिन्नता क्यों ...? "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना " की बात पर चलते हुए भारतीय संविधान में महिला को उसके धर्म के आधार पर क्यों बांटा गया है ?उसे अपने ही मुल्क में सिर्फ़ इंसान के तौर पर बराबरी के हक हासिल क्यों नहीं ? वह हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई नारी की बजाय भारतीय नारी कब कहलाएगी ? क्या ये ज़रुरी नहीं कि विवाह ,तलाक ,गुज़ारा भत्ता जैसे मुद्दों पर कानून बनाने वाले औरतों के हितों के मद्देनज़र मानवीय नज़रिया अपनाएं । उन्हें महज़ मज़हब के चश्मे से नहीं देखें ।

जब भी यह मुद्दा उठता है समाज में दो तरह की आवाज़ें सुनाई पडती हैं । कुछ लोग एक राष्ट्र एक कानून की बात पुरज़ोर तरीके से उठाते हैं , तो कुछ इसे इक मज़हब का अंदरुनी मामला बताते हैं । कई लोगों का कहना है कि मुस्लिम औरतों को अपने शौहर की चार शादियों पर कोई एतराज़ नहीं तो बेवजह इस मामले पर इतना बवाल क्यों ..? दलील यह भी है कि आज के दौर में चार बीवियां रखने की कूव्वत किसमें है ? लेकिन इस तंग गली का इस्तेमाल गाहे बगाहे मुस्लिमों के अलावा दूसरे लोग भी सरे आम करते रहे हैं ।

हालांकि अब मुस्लिम औरतें भी जुल्म ज़्यादतियों के खिलाफ़ खुल कर सामने आने लगी हैं । तलाक लेने में वे भी मर्दों से पीछे नहीं हैं । हाल ही में भोपाल में आयोजित दीनी तब्लीगी इज़्तिमा ए ख्वातीन में उलेमाओं की तकरीर के दौरान यह खुलासा हुआ । "शरीयत से हटकर दुनियावी माहौल के कारण तेज़ी से तलाक और खुला के मामले बढ रहे हैं ।" ये आंकडे सामाजिक रुप से आतंकवाद से भी खतरनाक है । इससे रोज़ कई परिवार प्रभावित हो रहे हैं ।

तलाक और खुला के चौंकाने वाले आंकडों पर मशविरे के बाद ज़्यादातर ख्वातीनों का कहना था कि पिछले पांच साल में इनमें कई गुना तेज़ी आई है । उनके मुताबिक शरीयत से भटकने के कारण ऎसे हालात पैदा हो रहे हैं । लोग दीन की बजाय मालदार होने और सीरत की बजाय सूरत को ज़्यादा तवज्जोह देने लगे हैं । रिश्तों की हदें टूटने से भी तलाक के मामलों में इज़ाफ़ा देखा गया है ।

महिला उलेमाओं के इस समागम में और भी कई मुद्दों पर तकरीरें हुईं । उलेमाओं ने समाज और परिवार की बुनियाद में औरत की अहमियत पर तकरीर की । उनके मुताबिक मां की दीनी नसीहत पुख्ता हो , तो तमाम दुनियावी तालीम हासिल करने के बावजूद बच्चा कभी ईमान की राह से नहीं भटक सकता । औरतों में पश्चिमी सोच के बढते चलन कडा एतराज़ जताया गया । वहीं आज़ादी के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं की आड में बेसाख्ता खुलेपन पर भी सवाल उठाए गये । नाजायज़ औलादों और एड्स को उलेमाओं ने औरत की आज़ाद ख्याली का नतीजा बताया ।

ये सच है कि तलाक की पहल कोई भी करे , टूटता तो पूरा परिवार ही है । फ़िर भी एक बात है जो रह - रह कर मन को कचोटती है कि तलाक की पहल अगर औरत करे , तो उसे आज़ाद ख्याली क्यों समझा जाता है । तलाक के मानी सिर्फ़ दो लोगों का जुदा हो जाना कतई नहीं है । इसका असर पूरे समाज पर भी होता है ।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

भगवान ने बदला ज़ायका .......!

वक्त के साथ ही साथ भगवान के मुंह का ज़ायका भी बदल रहा है । हाल ही में एक भक्त ने मंदिर में आरती के बाद मेरे हाथ पर पारले जी बिस्किट और पेठे का प्रसाद रखा । आज कल देवी - देवताओं को भी तरह - तरह के भोग का चस्का लग गया है । चना - चिरौंजी और मुरमुरे अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है । कुछ साल पहले जोबट के पास एक आश्रम में जाने का मौका मिला था ,वहां चाय का प्रसाद पाया । उज्जैन के भैरु बाबा मदिरा पान करके ही प्रसन्न होते हैं और आराधक की मुराद भी पूरी करते हैं । भोले भंडारी महादेव भी जम कर घोंटी गई हरी हरी भांग का भोग लगाकर ही प्रसन्न होते हैं

दुनिया के सबसे अमीर या यूं कहें कि अमीरों के भगवान तिरुपति बालाजी के लड्डू तो जग प्रसिद्ध हैं । उनके प्रसाद की पब्लिक डिमांड भी खूब रहती है । वहीं माता वैष्णो देवी भक्ति भाव से अर्पित सूखॆ सेब और अखरोट भी स्वीकारती हैं । कहते हैं ना कि भगवान भक्त की भावना देखते हैं चढावे के भाव [दाम] नहीं .....। इसी लिए कई जगह तो भक्त सेव - चूडा जैसे नमकीन भी भगवान को समर्पित करते देखे जाते हैं ।

बच्चों से लेकर बूढॊं तक में समान रुप से लोकप्रिय नटखट कन्हैया रुप चाहे जितने धरें ,पसंद वही करते हैं ,जो दुनियादारी के चलन में है । अरे अब तक आप नहीं समझे ...? वही माखन मिश्री ...। आप किसी को भी नर्म नर्म मक्खन लगाकर तो देखिए उसकी चिकनाहट आपका काम ना बना दे तो कहिए ....। कान्हा तो भाव के भूखॆ हैं । वे अपनी पसंद के ज़रिए हमें सीख देते हैं मक्खन सी स्निग्धता और मिश्री की मिठास व्यवहार में लाओ । और फ़िर भी नाकामी ही हाथ लगे , तो मक्खन का इस्तेमाल दूसरे तरीके से भी किया जा सकता है यानी मक्खन पालिश । और ये रामबाण नुस्खा अचूक ही नही सौ फ़ीसदी कारगर भी है ।

कल ही एक खबर पढी । आखिर एक भक्त ने पता लगा ही लिया कि सांईं बाबा को कौन सा फ़ल सबसे ज़्यादा पसंद था । गहन शोध के बाद पता चला है कि अमरुद सांईं बाबा का मनपसंद फ़ल था । सांईं संस्थान के अध्यक्ष जयंत ससाने का कहना है कि शिर्डी और आसपास के इलाके में अमरुद के भारी उत्पादन को देखते हुए श्रद्धालुओं को दिए जाने वाले प्रसाद में अमरुद की बर्फ़ी को भी शामिल किया जाएगा । प्रसाद के लिए अमरुद की बर्फ़ी संस्थान में ही तैयार की जाएगी । इसके लिए प्रसिद्ध मिठाई निर्माता हल्दीराम और पुणे के चितले भंडार से बातचीत चल रही है । माना जा रहा है कि इससे करीब पाँच सौ लोगों को रोज़गार मिलेगा और अमरुद उत्पादक जमकर लाभ कमायेंगे ।

ऎसा ही एक और वाकया है । हमारे घर पूजा कराने दक्षिण भारतीय पुजारी आते हैं । पूजा के दौरान फ़लों का पैकेट तलाशना शुरु किया गया ,तो पता चला कि सेब का पैकेट नदारद ...। लेकिन पुजारी जी ने हमारी परेशानी को दूर करते हुए कहा कि कोई बात नहीं पूजा में सेब वैसे भी उपयोग में नहीं लाना चाहिए । मन की जिज्ञासा का समाधान करते हुए उन्होंने बताया कि सेब विदेशी फ़ल है ,इसीलिए भगवान को पसंद नहीं ...!

खैर , भगवान तो भगवान ही हैं उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं ...। ये तो वो जानें या उनका पी ए यानी पुजारी .......। लेकिन अब इस घट - घट के वासी अंतर्यामी के मन की बात बिज़नेस मैनेजमेंट वाले भी बखूबी समझने लगे हैं ।

अब तो सभी भगवान की लोकप्रियता का ग्राफ़ बढाने का जिम्मा भी मैनेजमेंट गुरुओं के हवाले है। जितना क्वालिफ़ाइड गुरु संस्थान की प्रसिद्धि की गुंजाइश भी उतनी ज़्यादा । अब तक अमरुद गरीबों का सेब था लेकिन जल्दी ही ये भी उनकी पहुंच से बाहर होने जा रहा है ।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

मुन्नाभाई की साइकल सवारी, गाँधीगिरी गाँधीवाद पर भारी

अपने मुन्ना भाई भले ही एमबीबीएस ना कर पाए हों मगर अब साइकल की सवारी कर संसद भवन में एंट्री की पूरी तैयारी में हैं । समाजवादी पार्टी सत्ता हासिल करने के लिए किस स्तर तक जा सकती है ये तो अमर सिंह का अगला बयान ही बताएगा । लेकिन एक सवाल - टाडा के तहत दोषी करार दिये गये संजय दत्त को क्या सिर्फ़ इस लिये संसद में पहुंचने का हक मिल जाना चाहिए क्योंकि वे एक फ़िल्म में गाँधीगिरी के पक्ष में खडे दिखाई देते हैं । किसी फ़िल्म का हिट होना और उसका कोई जुमला लोगों की ज़ुबान पर चढ जाना ही सांसद बनने की योग्यता का पैमाना कैसे बन सकता है ?

माननीय अमरुद्दीन बाटला हाउस एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देने में नहीं हिचकते , हिलेरी क्लिंटन की समाजसेवी संस्था को मोटा चंदा देने की बात पर चुप लगा जाते हैं । एकाएक संजय दत्त की उम्मीदवारी को जायज़ ठहराने के लिए एक फ़िल्म का हवाला देते हैं । अमर वाणी है कि संजय दत्त ने युवाओं के बीच अपनी फ़िल्म के माध्यम से गाँधी को दोबारा लोकप्रिय बनाने का सराहनीय काम किया है । गोया कि गाँधी जी भारत में अपनी पहचान के लिए संजय दत्त के मोहताज हों ....।

मज़े की बात है कि अमर सिंह गाँधीजी के नाम पर संजय दत्त को राजनीति की सीढियों पर ऊपर चढाने की जुगत लगा रहे हैं । उधर मुम्बई हमले के बाद मीडिया को बुलाकर कैमरे के सामने अपनी पीडा बताते हुए संजय दत्त खुद मानते हैं कि गाँधीगिरी करके आतंकियों से नहीं निपटा जा सकता ।

अमर सिंह आखिर देश को कहां ले जाना चाहते हैं .....? सारे भांड - मिरासियों , अपराधी तत्वों की फ़ौज संसद में पहुंचा कर ही दम लेंगे क्या ...?अमर सिंह जी ज़रा इन नामों पर भी गौर करें : अबु सलेम , बबलू श्रीवास्तव, मोनिका बेदी भी खासे लोकप्रिय हैं , इन्हें भी टिकट की दरकार है । ऎसा ही चलता रहा तो शोले का गब्बर सिंह वाला डायलाग चलन में लौटेगा संसद सदस्यों के लिए - ठाकुर ने .........की फ़ौज तैयार की है ।

लेकिन एक बात गौर करने वाली है कि गांधी के देश में गाँधी को पूछने वाला कोई नहीं । युवाओं में गाँधीगिरी का क्रेज़ है लेकिन गाँधीवाद दम तोड चुका है । गाँधी दर्शन लोगों के आचार , विचार और व्यवहार से गुम हो चुका है । इसका सबसे बडा उदाहरण है गाँवों की पहचान का खत्म होना । ग्रामीण अर्थव्यवस्था का तार तार हो जाना । एक वक्त था जब शहर गाँवों पर निर्भर थे लेकिन अब गाँव शहरों के मोहताज होकर रह गये हैं । बहरहाल गाँधीजी के दर्शन पर चर्चा फ़िर कभी ।

वैसे एक दिलचस्प खबर और भी .....। अपराधी तत्व संवैधानिक संस्थानों में पूरी ठसक से प्रवेश पा रहे हैं , जनता की सहमति लेकर .....???????? मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री , तमाम मंत्रियों और आला अफ़सरों की सुरक्षा में लगे 1000 अंगरक्षकों के चरित्र का गोपनीय सत्यापन कराया जा रहा है । वीआईपी सुरक्षा में तैनात किए जाने वाले अंगरक्षकों की कार गुज़ारियों को जानने के लिए उनके पिछले तीन सालों का रिकॉर्ड खंगाला जा रहा है । इसमें उनकी दिनचर्या ,लत और संगत का लेखा जोखा तैयार किया जाना है ।

वैसे बता दें कि एक गैर सरकारी संगठन नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश ,राजस्थान , दिल्ली ,छत्तीसगढ मिज़ोरम में हाल ही में चुने गये 549 विधायकों में से 124 का आपराधिक रिकॉर्ड है । यानी हर पाँच में से एक ...। आप ही तय करें सुरक्षा की ज़रुरत किसे है ...?

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

या इलाही ये माजरा क्या है ............

गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने कलम की खातिर नैतिकता के नए नए प्रतिमान स्थापित किए ।
खींचों ना तलवार ना कमान निकालो
जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो ।
संभवतः ऎसा ही कोई शेर है ,जो पत्रकारों को नैतिकता के साथ व्यवस्था के गुण दोष सामने लाने का हौंसला और जज़्बा देता है । पत्रकारिता आज़ादी के पहले तक , बल्कि आज़ादी के कुछ साल बाद तक मिशन हुआ करती थी । अब पत्रकारिता मशीन बन गई है , उगाही करने की मशीन ....। सबसे ज़्यादा चिंता की बात ये है कि अब मालिक ही अखबार के फ़ैसले लेते हैं और हर खबर को अपने नफ़े नुकसान के मुताबिक ना सिर्फ़ तोडते मरोडते हैं , बल्कि छापने या ना छापने का गणित भी लगाते हैं ।
भोपाल से निकलने वाले एक अखबार ने नए साल में पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित किए हैं । अपनी तरह का शायद ये पहला और शर्मनाक
मामला होगा । अपने आपको समाज का हित चिंतक बताने वाले इस अखबार ने दो जनवरी को एक समाचार दिया और फ़िर चार जनवरी को इसी समाचार पर U टर्न मार लिया । संभव है कि आने वाले सालों में पत्रकारिता जगत में आने वाले छात्र इसे कोर्स की किताबों में भी पाएं। कहानी पूरी फ़िल्मी है । आप ही तय करें ये सच है या वो सच था .........
दो जनवरी को प्रकाशित चार जनवरी को प्रकाशित



































































रविवार, 4 जनवरी 2009

इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........

भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।

अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?

खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।

कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।

ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।

जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।

एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।

मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।

पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"

नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।