शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

नेताओं के आगे प्रजातंत्र की शिकस्त

सत्ता के सेमीफ़ायनल का नतीजा आ चुका है । कहा जा सकता है कि मुकाबला बराबरी का रहा । कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ़ दिल्ली था , लेकिन दिल्ली के साथ राजस्थान मे मिली जीत ने पार्टी को उम्मीद से दुगना पाने के एहसास भर दिया है । बीजेपी तीन राज्यों की सत्ता फ़िसलने की आशंका से घिरी थी , मगर हार मिली सिर्फ़ राजस्थान में । यानि दोनों ही खेमों के पास खुशियां और गम मनाने के कारण मौजूद हैं ।

हिन्दी बेल्ट के मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ , राजस्थान और दिल्ली के नतीजों से जो बात उभर कर आई है , वह ये कि देश की राजनीति में व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना । इन चारों राज्यों में चुनाव कुछ व्यक्तियों के इर्द - गिर्द ही केन्द्रित रहे । इन सभी प्रदेशों में पार्टियां और उनके सिद्धांत भी हाशिए पर चले गए ।

फ़ौरी तौर पर व्यक्तिवाद भले ही राजनीतिक दलों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो , लेकिन आगे चलकर यह पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कतई फ़ायदेमंद नहीं कहा जा सकता । भले ही चुनाव हो गये , लेकिन मुद्दे अनुत्तरित हैं । वैसे जनतंत्र में लीडर से बडी पार्टी होती है लेकिन इन सबसे ऊपर है देश ...।

चुनाव नतीजों को लेकर बैचेनी काफ़ी बढ गई है । कई लोगों से बातचीत के बाद सामने आए तथ्य हैरान कर देने वाले हैं । कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार सामाजिक रुप से अनैतिक माना जाता था । धीरे - धीरे इसे मान्यता मिलने लगी और अब तो आलम ये है कि भ्रष्टाचारी ही समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित है ।

मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा ही नहीं है । हर शख्स चाहता है कि उसका हरेक काम , गलत हो या सही , हर हाल में होना ही चाहिए , चाहे फ़िर इसकी कोई भी कीमत चुकाना पडे । मुम्बई हमले पर हाहाकार मचाने वाला यह देश सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों से ईमानदारी चाहता है , लेकिन खुद कदम - कदम पर घूस लेना चाहता है । गलत को सही का जामा पहनाने के लिए पैसे का ज़ोर आज़माने से भी कोई परहेज़ नहीं ।

पैसों का लेन देन अब दस्तूर बन चुका है । इस लिए मंहगाई भी कोई मुद्दा नहीं रही । इस चुनाव में देश में अमन चैन यानि आतंकवाद से निजात के मसले पर निजी हित भारी पडते दिखाई दिए । लोगों की सोच इतनी संकुचित हो गई है कि देशहित कहीं पीछे ,काफ़ी पीछे छूट गया है । कुछ युवाओं से बातचीत में पता चला कि उन्होंने सत्तारुढ दल को लाने के लिए थोकबंद वोट दिए , ताकि कालेज में संचालित पाठ्यक्रम पर लटक रही स्टे की तलवार से छुटकारा मिल सके । कुछ ने नियमित होने की लालसा और कुछ ने गली की सडक के सुधरने की आस में मौजूदा सरकार को ही दोबारा सत्ता सौंपने का फ़ैसला लिया ।

नेताओं ने इसे जनतंत्र की जीत बताया है । लेकिन क्या वाकई गणतंत्र जीत गया । नेताओं के छलावे में आकर बडे मुद्दों को दरकिनार करके देश कितने सालों तक प्रजातंत्र का जश्न मना सकेगा ...? कल चाहे जो भी पार्टियां जीती हों लेकिन देश एक बार फ़िर हार गया । जनतंत्र की इतनी करारी हार पर मन बहुत व्यथित है । चुनाव परिणाम डॉक्टर की उस जांच रिपोर्ट की मानिंद लगते हैं , जिसमें मरीज़ को लाइलाज बीमारी से ग्रस्त पाया गया हो । ६३ बरस के भारत की जर्जर - बीमार देह को भलिभांति सेवा टहल की सख्त ज़रुरत है । लेकिन बूढों के लिए आश्रम बनाने वाले इस खुदगर्ज़ समाज से क्या ये उम्मीद वाजिब है ............?
मियाँ मैं हूँ शेर , शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूं, तो झुंझलाहट नहीं जाती
किसी दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ , मुँह की कडवाहट नहीं जाती

रविवार, 7 दिसंबर 2008

पाठक और पत्रकार , शोषण के शिकार

आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।

इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।

आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।

ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।

पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।

कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।

यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सेना पर तोहमत से पहले , मीडिया झांके अपनी गिरेबां

मुम्बई हमले के बाद सरकार गाइड लाइन बनाकर खबरिया चैनलों पर लगाम कसने की तैयारी में जुट गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एडवायज़री को न्यूज़ चैनलों के संपादकों की संस्था ’ न्यूज़ ब्राडकास्टर्स अथारिटी ’ ने सिरे से खारिज कर दिया है । उलटा तोहमत जड दी है कि सरकार के नाकारापन और नेताओं की बददिमागी को जनता के सामने लाने से बौखला कर यह कदम उठाया जा रहा है । लेकिन बेलगाम और बेकाबू हो चुके खबरिया चैनलों का आरोप क्या सही है ?

ज़ी न्यूज़ पर नौसेना और कोस्ट गार्ड को निशाना बना कर एक ही खबर लगातार हर घंटे दिखाई जा रही है । धीर गंभीर नज़र आने वाले इन पत्रकारों में अचानक अपने पेशे के प्रति इतनी ईमानदारी कहां से पैदा हो गई ? सेना के खिलाफ़ मोर्चा खोलने का यही मौका मिला इन्हें ..? वैसे इन्हें देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सरे आम कीचड उछालने का हक किसने दिया ? रक्षा संबधी दस्तावेज़ों को जगज़ाहिर कर महामना पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के कौन से मानदंड स्थापित कर रहे है । ये तथ्य तो सभी ने मान लिया है कि केन्द्र सरकार के नाकारापन ने देश को ये दिन दिखाया है ,लेकिन चैनल देश की सेना का मनोबल तोड कर कौन से झंडे गाड रहे हैं ?

दाउद इब्राहीम ,अबू सलेम ,बबलू श्रीवास्तव जैसे लोगों की ’वीर गाथाए” गाने वालों को कोई हक नहीं बनता देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड करने का ..। राखी सावंत , मोनिका बेदी और ऎश्वर्या के प्रेम के चर्चे कर अपने खर्चे निकालने वाले बकबकिया चैनलों की देश को "घूस की तरह पोला " करने में खासी भूमिका रही है । प्रो. मटुकनाथ को ’ लव गुरु” के खिताब से नवाज़ कर सामाजिक दुराचार को प्रतिष्ठित करने वाले किस हक से सामाजिक सरोकारों का सवाल उठाते हैं ?

इलेक्ट्रानिक मीडिया को भाट - चारण भी नहीं कहा जा सकता । इन्हें मजमा लगाने वाला कहना भी ठीक नहीं होगा ,क्योंकि डुगडुगी बजा कर भीड जुटाने वाला मदारी भी तमाशबीनों के मनोरंजन के साथ - साथ बीच - बीच में सामाजिक सरोकारों से जुडी तीखी बात चुटीले अंदाज़ में कहने से नहीं चूकता । सदी के महानायक के इकलौते बेटे के विवाह समारोह में सार्वजनिक रुप से लतियाए जाने के बाद कुंईं -कुंई ..... करते हुए एक बार फ़िर उसी चौखट पर दुम हिलाने वाले ये लोग क्या वाकई देश के दुख में दुबले हो रहे हैं .........?

सबसे तेज़ होने का दम भरने वाले खबरची चैनल में काम कर चुके मेरे एक मित्र ने बताया था कि उन्हें सख्त हिदायत थी कि समाज के निचले तबके यानी रुख्रे - सूखे चेहरों से जुडे मुद्दों के लिए समाचार बुलेटिन में कोई जगह नहीं है । ये और बात है कि चैनल को नाग - नागिन के जोडे के प्रणय प्रसंग या फ़िर नाग के मानव अवतार से बातचीत का चौबीस घंटे का लाइव कवरेज दिखाने से गुरेज़ नहीं ।

क्या ये चैनल देश को भूत - प्रेत , तंत्र मंत्र , ज्योतिष , वास्तु की अफ़ीम चटाने के गुनहगार नहीं हैं ? इतना ही नहीं क्राइम और इस तरह की खबरों से परहेज़ का दावा करने वाले एक चैनल ने मानव अधिकारों और धर्म निरपेक्षता के नाम पर जहर फ़ैलाने के सिवाय कुछ नहीं किया । अमीरों और गरीबों के बीच की लकीर को गहरा करने का श्रेय भी काफ़ी हद तक इन्हीं को जाता है । इसी चैनल ने चमक - दमक भरे आधुनिक वातानुकूलित बाज़ारों में बिकने वाली चीज़ों का बखान कर मध्यम वर्ग को ललचाया । पहुंच से बाहर की चीज़ों को येन केन प्रकारेण हासिल करने की चाहत के नतीजे सबके सामने हैं । देश में ज़मीर की कीमत इतनी कम पहले कभी नहीं थी । तब भी नहीं जब लोगों के पास ना दो वक्त की रोटी थी और ना तन ढकने को कपडा ...। देश में फ़िलहाल सब कुछ बिकाऊ है ... सब कुछ .....जी हां सभी कुछ ..........।

इसका मतलब कतई ये नहीं कि सेना में अनियमितताएं नहीं हो रही । लेकिन मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करना ही होगा , क्योंकि इस समय एकजुट होकर सबसे बडी समस्या का मुकाबला करने की दरकार है । मीडिया इतनी ही गंभीर है , तो ये बातें पहले क्यों नहीं उठाई या देश हित में कुछ दिन रुकने का संयम और सब्र क्यों नहीं रखा ? पहले जनता को रासरंग में डुबो कर गाफ़िल बनाया , फ़िर मुम्बई हमले के लाइव कवरेज और गैर ज़िम्मेदाराना बातों से देश की स्थिति को अंतरराष्ट्रीय स्तर कमज़ोर करने का पाप किया , इस कुकर्म को छिपाने के लिए नेताओं के खिलाफ़ बन रहे माहौल भुनाने में कोर कसर नहीं छोडी और अब किसी भी तरह के नियंत्रण से इंकार की सीनाज़ोरी ......।

बडा कनफ़्यूज़न है । चैनल देश के लिए वाकई चिंतित हैं या कमाई के लिए देश के दुश्मनों के हाथ का खिलौना बन चुके हैं कह पाना बडा ही मुश्किल है । हे भगवान [ अगर वाकई तू है तो ...] इन शाख पर बैठे उल्लुओं को सदबुद्धि दे । इन्हें बता कि देश हित में ही इनका हित है । देश में हालात माकूल होंगे तभी इनका तमाशा चमकेगा । अफ़रा तफ़री के माहौल में तो बोरिया बिस्तर सिमटते देर नहीं लगेगी । सेना देश का आत्म सम्मान और गौरव है । उसके खिलाफ़ संदेह के बीज बो कर जाने - अनजाने दुश्मनों के हाथ मज़बूत करना राष्ट्रद्रोह है........

आते - आते आएगा उनको खयाल
जाते - जाते बेखयाली जाएगी ।


चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बदलाव चाहिए तो मोमबती नहीं मशाल जलाओ

मुम्बई हमला अंधों का हाथी बन गया है । सभी अपनी सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से इसकी व्याख्या में व्यस्त हैं । ताज पर हुए हमले ने चिंतकों और विश्लेषकों को भी काम पर लगा दिया है । खुफ़िया तंत्र की नाकामी और राजनेताओं की बदमिजाज़ी के आम हो चले किस्सों के बीच मनीषी नए किस्म का मनन - चिंतन करने में जुट गये हैं । कहीं मीडिया की भूमिका को लेकर वाल उठाए जा रहे हैं , तो कहीं उसकी नीयत में उपजी खोट का खुलासा हो रहा है । जाने माने खबरनवीस ताज में एक छोटे परिवार के चाय के खर्चे का आकलन कर देश के विकास की गाथा पर गह- गंभीर चिंतन में मशगूल हैं ।

खबरिया चैनलों की बदौलत आई राष्ट्र प्रेम की सुनामी का असर कमज़ोर पडने लगा है । चैनलों को देखकर मन बल्लियों उछल रहा था कि इस बार तो बस .... ’आर या पार ..।’ सारी व्यवस्था बदल कर ही दम लेंगे हम ..। लेकिन आज सुबह अखबार के पन्ने पलटते ही ये खुशफ़हमी भी जाती रही । भोपाल के न्यू मार्केट , राजभवन और भेल में बम की खबर से मचे हडकंप की खबर को पढते - पढते आखिरी पैरा ने सारे मुगालते एक ही बार में मिटा दिए । बम की सूचना के बाद इलाके की सारी दुकानें बंद हो गई , लेकिन आइसक्रीम की मशहूर दुकान पुलिस के कहने के बावजूद खुली रही । आखिर व्यापारी ने पार्लर बंद क्यों नहीं किया ,क्या उसे अपने कर्मचारियों और संस्थान की फ़िक्र नहीं थी ? दरअसल बेहद गोपनीय तरीके से की गई पुलिस की माक ड्रिल की खबर से व्यापारी बखूबी वाकिफ़ था । यानी सुरक्षा व्यवस्था में कहीं ना कहीं छेद ...।

मुंबई में हुए हमलों के दूसरे दिन भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' की सुर्खी थी 'ऑवर नाइटमेयर, ऑवर वेक अप काल' यानी 'हमारा दुखद सपना, हमे जगाने वाली घंटी ।'
लेकिन क्या इससे भारत जागेगा ? अगर हम पिछले दिनों हुई घटनाओं को देखें तो उत्तर होगा नहीं । भारत एक विशालकाय समुद्री जहाज जैसा है , जो हिलता डुलता हुआ पानी को चीरता चलता है और ऐसे आंधी तूफ़ान में भी डूबता नहीं जिसमें छोटी नौकाएं या अस्थायी जहाज़ डूब जाते हैं ।
भारत ने कई युद्ध, दंगे, क़त्ल और आतंकवादी घटनाएं देखी हैं लेकिन ये जहाज़ सभी मुसीबतों को आराम से झेलता हुआ निकल जाता है । यहां के लोगों में तनाव तेज़ी से बढ़ता है और उसी तेज़ी से ख़त्म भी हो जाता है । इसका सबसे निराशाजनक और नकारात्मक पक्ष यह है कि भारतीय अगर एक बार शांत हो जाते हैं तो उनमें समस्या को नज़रअंदाज करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है । नतीजतन वे समस्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाय हालात से समझौता करने लगते हैं ।

आक्रोश जताने के लिए हाथों में मशाल थामने की बजाय मोमबत्तियां जलाना भी इसी सहूलियत का हिस्सा जान पडता है । सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्व होता है । मशाल की धधकती ज्वाला हमारे इरादे की मज़बूती को अभिव्यक्ति देती है । तेज़ हवा का झोंका तो क्या ज़रा सी फ़ूंक का प्रतिरोध भी ना सह पाने वाली , हर पल अपना अस्तित्व खोने वाली मोमबत्ती शायद कभी भी हमारे संकल्प की दृढता की प्रतीक हो ही नहीं सकती ।

हाल के दिनों के घटनाक्रम पर नज़र डालें , तो उत्तेजना से भरे लोगों का हुजूम चारों तरफ़ दिखाई देने लगा । लेकिन इनमें मुद्दों की समझ और जोश कहीं नज़र नहीं आती । दिशाहीन लोगों का जमावडा अक्सर भीड की शक्ल अख्तियार कर लेता है । ऎसे में भीड और भेड का फ़र्क खत्म हो जाता है । भेडों को हांकने वाला चरवाहा ही अंत में रेवड की दिशा तय करने लगता है । बहरहाल ऎसा कुछ फ़िलहाल होता दिखाई नहीं देता , क्योंकि मोमबत्तियां उठाकर नारे लगाने के श्रम से थक चुके लोग अगले किसी हादसे [वह भी पांच सितारा] पर ही ऊर्जावान हो पाएंगे ।

देश को क्रांति की प्रतीक मानी जाने वाली मशाल थामने वाले हाथों की ज़रुरत है । पुतले जलाने , शवयात्रा निकालने , सिर मुडाने , दौड लगाने या फ़िर रंगबिरंगी टी शर्ट धारण करके सडकों पर पेट्रोल फ़ूंकने से व्यवस्था ना तो कभी बदली है और ना ही आगे बदली जा सकेगी । व्यवस्था बदलना है तो वैचारिक परिवर्तन लाना होगा । भोगवादी संसकृ्ति से तौबा किए बिना अब भारत के हालात बदलने की बात करना महज़ छलावा है ।

कुछ लोग जो सवार हैं कागज़ की नाव पर
तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर ।
चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

दो - तीन दिसम्बर की दरमियानी रात का खौफ़नाक मंज़र

पिछले २३ सालों से हर बार आज के दिन लगता है कि कैलेंडर में २-३ दिसंबर की तारीख आती ही क्यों है ? आज शाम से मन कुछ उदास है । ३ दिसंबर १९८४ की सुबह का खौफ़नाक मंज़र अपनी चपेट में लेने लगता है और एकाएक सब कुछ बिखर सा जाता है ।
आगे की पढाई से छुटकारा पाने की गरज और अपने पैरों पर खडे होने की ललक से शुरु की गई नौकरी के नियम बडे सख्त थे । कडाके की ठंड में भी सात बजे तक स्कूल में हाज़िरी ज़रुरी थी , तय समय से पांच मिनट की देरी यानी आधे दिन की तनख्वाह का सफ़ाया ।

शिवाजी नगर से लखेरापुरा तक करीब ८-९ किलोमीटर का फ़ासला है । रास्ते भर लोगों की बदहवास भीड का सबब समझ से बाहर था ।{ खबरिया चैनल जो नहीं थे पल -पल की हलचल बयान करने के लिए , काश होते ....] लोग रजाई - कंबल लिए टी टी नगर का रूख किए थे । लग रहा था मानो किसी जुलूस या मेले में शिरकत करने जा रहे हैं इक्ट्ठा होकर । स्कूल पहुंचने प् देखा वहां भी सभी कुछ बातें कर रहे हैं । वातावरण में अजीब सी गंध समाई है । सब एक - दूसरे को अपनी आप बीती सुना रहे हैं । हालांकि तब तक किसी को हालात की गंभीरता का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं था ।
पुराने शहर की तंग गली में चलने वाले स्कूल के बाहर एकाएक शोरगुल सुनाई देने लगा । लोग एक ही दिशा में बिना कुछ सुने भागे जा रहे थे । और हमें भी कुछ ऎसा ही करने का मशविरा दे रहे थे । लोग चिल्ला रहे थे कि भागो टंकी फ़ट गई है । आधी रात में गैस की रिसन के पीडादायी अनुभ से गुज़र चुके लोगों के लिए ये खबर मौत से रुबरु होने के समान थी ।
हर शख्स की आखें सुर्ख ,सूजी हुईं । जलन करती आंखॆं खोल पाना भी नामुमकिन ,लेकिन जान से ज़्यादा कीमती भला क्या ..। मांएं अपने बच्चों को छाती से चिपकाए , अंगुली पकडे दूर चली जाना चाहती थीं किसी महफ़ूज़ ठिकाने की तलाश में । बाद में पता चला कि ये महज़ अफ़वाह थी । तूफ़ान तो रात में ही अपना काम कर गया था ।
दोपहर बाद हालात को समझने के लिए मैं अपने पिता के साथ जेपी नगर ,कैंची छोला ,चांदबड इलाके मे गई । इतना भयावह मंज़र मैंने आज तक नहीं देखा । चारों तरफ़ पसरा सन्नाटा मौत के तांडव को बयान कर रहा था । सभी तरह के पालतू और आवारा जानवरों की फ़ूली हुई लाशें ,
सांय - सांय करती सडकें और सूने पडे मकान ....। हमीदिया अस्पताल ,काटजू और जेपी हास्पिटल में चारों तरफ़ हाहाकार ।
हादसे के कुछ घंटे बाद से शुरु हुई राजनीति का दौर अब भी बदस्तूर जारी है । पहले हादसे में हुई मौतों के आंकडे पर राजनीति ,फ़िर मुआवज़े पर और फ़िर पूरे शहर को मुआवज़ा दिलाने पर ।कई संगठन न्याय दिलाने के लिए आगे आए । कुछ नदारद हो गये । जो शेष हैं उनकी आपसी खींचतान बरकरार है । गैस पीडितों के बेहतर और मुफ़्त इलाज के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाए गए अस्पताल में पीडितों की कोई सुनवाई नहीं । इस पांच सितारा अस्पताल में उच्च वर्ग को ही अच्छा इलाज नसीब है । सरकारी अस्पतालों की बेरुखी के चलते पुराने भोपाल के डाक्टरों की प्रेक्टिस भी खूब चली ।
मुआवज़ा मिलने से गैस पीडितों की समस्याएं कम नहीं हुईं । पैसा मिला , लेकिन भोपालियों की तबियत ही कुछ ऎसी है कि रुपया देखते ही हथेली खुजाने लगती है । आज पैसा है तो सैर सपाटा , सौदा सुलफ़ ,किर भले ही कल फ़ाकाकशी की नौबत ..। मुआवज़ा बंटने का असली फ़ायदा तो मिला शहर के सोने - चांदी और कपडों के व्यापारियों को ।
हज़ारों गैस पीडित आज भी हर रोज़ तिल -तिल कर मर रहे हैं । लाइलाज बीमारियों की चपेट में हैं । गैस कांड की बरसी पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा और श्रद्धांजलि की औपचारिकता निभाने के बाद सब पहले सा हो जाता है । आज के अखबार ने खबर दी है कि गैस पीडितों की बीमारियों का इंडियन कौंसिल आफ़ मेडिकल रिसर्च २४ साल बाद एक बार फ़िर अध्ययन कराने जा रही है । कभी कभी तो लगता है कि भोपाल वासी इस तरह के अध्ययनों के लिए महज़ ’ गिनी पिग ’ होकर रह गए हैं ।
दुनिया ने किसका राहे फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले ।

चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

सरकार को मैडम सोनिया की फ़टकार

मुम्बई में दहशतगर्दी पर केन्द्र और राज्य सरकार की नाकामी ने मैडम सोनिया की पेशानी पर बल ला दिए है । प्रियंका राबर्ट वाड्रा के तल्ख तेवरों के बाद सीपीसी की मीटिंग में राहुल बाबा के भडकने ने देश के राजनीतिक गलियारों में सरगर्मी बढा दी । कांग्रेस के भावी कर्णधारों के कडे तेवरों के आगे कई दिग्गज नेताओं की घिग्गी बंध गई लगती है ।

सोनिया ने भी बच्चों की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए और गुस्से में ऎसे कठोर अल्फ़ाज़ कह डाले , जो यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल पर ही सवालिया निशान लगाते हैं । बैठक में सरकार को दी गई हिदायतों पर गौर किया जाए , तो उसका लब्बो लुआब कुछ ऎसा ही निकलता है । चैनलों पर प्रसारित ब्रेकिंग न्यूज़ की एक बानगी -

- आतंकवाद पर सोनिया सख्त

- सोनिया का सरकार को दो टूक संदेश

- द्रढ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व की ज़रुरत

- निर्णायक कार्रवाई की ज़रुरत

- लोगों को लगे कि सरकार है

- सोच विचार का समय गया

मोहतरमा सोनिया के
इस बदले रुख पर बस यही कहा जा सकता है - बडी देर कर दी मेहरबां आते आते........... ।

इन सभी बातों को पलट कर देखें या यूं कहें कि गूढ अर्थ ढूंढें , तो लगता है कि अब तक केंद्र सरकार जनता के पैसों पर , जनता की मर्ज़ी से , जनता के लिए मसखरी कर रही थी । हर मोर्चे पर नाकामी की ऎसी ईमानदार स्वीकारोक्ति के बाद तो पूरी सरकार को ही अलविदा कह देना चाहिए ।

इस्तीफ़ों की नौटंकी " डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज़ ’ से ज़्यादा कुछ नहीं । लगातार अपनी चमडी बचाने में लगे नेताओं को ऊपर से फ़टकार पडी , तो बेशर्मी ने नैतिकता का लबादा ओढ लिया ....! खैर इन बेचारों को दोष देने का कोई मतलब नहीं । बात की तह में जाएं , तो पाएंगे कि असली गुनहगार हम हैं । और अपनी बेवकूफ़ियों की ठीकरा नेताओं पर फ़ोडकर असलियत से मुंह छिपाने की पुरज़ोर कोशिश से बाज़ नहीं आ रहे ।

जनसेवक ना जाने कब जन प्रतिनिधि बन बैठे । जिन्हें जनता की सेवा दायित्व निभाना था , सत्ता के मालिक बन बैठे । यानी प्रजातंत्र की असली सूत्रधार जनता अपने अधिकारों को आज तक समझ ही नहीं सकी है । गलत लोग चुनें भी हमने हैं ,तो फ़िर शिकवा - शिकायत कैसी ? अच्छे लोगों को आगे लाने की मुहिम चलाना होगी ,जनता को मानसिकता बदलना पडेगी , सही - गलत का फ़र्क समझना होगा और देशहित में निज हितों को दरकिनार करना होगा । चांदी के चंद टुकडों के लिए ईमान की तिजारत बंद करके ही देश को बचाया जा सकता है ...।

नयी दुनिया की पड रही है नींव
खैर उजडी तो उजडी आबादी
फ़ैसला हो गया सरे मैदां
ज़िंदगी है गरां कि आज़ादी