गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दुनिया का मेला , मेले की दुनिया

होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

इस मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटॆ स्वत स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को एक अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है । मेले होते हैं - मेल मुलाकात के ठिए । मेला यानी खुद को खो कर सबको पा लेने का ठिकाना । मेला मानी अपने बाहरी व्यक्तित्व से छूटकर अपने अंतस में झांकने का स्थान । चारों ओर शोर शराबा , भीड - भडक्का ,मगर फ़िर भी आप बिल्कुल अकेले सबसे अंजान ...........।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ...........


दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

ऎसे ही एक मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटे स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

रविवार, 9 नवंबर 2008

करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र

जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।

संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।

अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।

अब मामले का दूसरा पहलू - विश्‍‍वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।

श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।

लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।

देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।

लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।

[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

नारों- वादों के शोर में मुद्दे हुए नदारद

मध्य प्रदेश में चुनाव सर पर हैं और प्रमुख पार्टियों में टिकट को लेकर मचे घमासान का नज़ारा जनता खूब चाव से देख रही है । हफ़्ते भर पहले तक उमा के तेवरों और कांग्रेस से कडी टक्कर मिलने की आशंका ने बीजेपी की बैचेनी बढा दी थी । मगर कांग्रेस ने चुके हुए नेताओं को टिकट देकर सत्तारुढ दल की मुश्किलें आसान कर दी हैं । रही बात उमा भारती की , तो वे अपनी दुश्मन खुद हैं । ह्फ़्ते भर पहले तक साध्वी मामले में खुलकर सामने आने के कारण उमा लीड लेती लग रही थीं ,लेकिन छिंदवाडा में पार्टी पदाधिकारी की सरेआम पिटाई ने किए कराए पर पानी फ़ेर दिया । उमा ने भगवा चोला भले ही धारण कर लिया हो ,मगर अब तक अपने स्वभाव को भी ठीक तरह से नहीं साध सकीं हैं।

मतदान को लगभग २० दिन बचे हैं । चुनावी माहौल ज़ोर पकडने लगा है । लेकिन इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं । मैंने पहले भी चुनाव देखे हैं , रिर्पोटिंग भी की है । प्रदेश में पहली बार शायद ऎसा मौका आया है ,जब पार्टियों के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं । प्रजातंत्र में इससे बुरा दौर और क्या हो सकता है ? मुद्दों का अकाल यानी लोकतंत्र के लिए संकट का काल । जनता रोज़मर्रा की दिक्कतों से बेज़ार है लेकिन नेता बेखबर । मुद्दाविहीन राजनीति नेताओं क्के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है ,लेकिन लोकतंत्र के हित में ये संकेत शुभ नहीं ।

झंडे ,बैनर ,पोस्टर सज गये हैं । सडकों पर वाहन रैलियों और नारों का शोर है । मगर पिछले पांच सालों के कामकाज का लेखा जोखा मांगने की ना तो किसी को सुध है और ना ही हिसाब देने वालों को कोई परवाह । राजनीतिक दीवालिएपन का आलम ये है कि कांग्रेस और बीजेपी अब तक चुनावी घोषणा पत्र भी जनता के सामने नहीं रख सके हैं ।

मुझे लगता है कि प्रदेश की अवाम भी भ्रम की स्थिति में है । काग्रेसी उम्मीदवारों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है और बीजेपी की ओर से दागी मंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त दोबारा चुनावी दंगल में भेजी गई है । टिकटों की खरीद फ़रोख्त की खबरें ज़ोरों पर रहीं । हर कोई विधायक पद का प्रबल दावेदार है । कोई धन के बूते , कोई धर्म के नाम पर । अब तो राजनीति कइयों के लिए खानदानी पेशा बन गया है । जातिगत गणित भी खूब काम कर रहा है । हमें चुनना है खराब में से कम खराब । यानी इधर नागनाथ , तो उधर सांपनाथ ।

मेरा नज़र में इस चुनाव में मुद्दों के साथ - साथ विकल्प का भी अकाल है ।, छोटे दलों के प्रत्याशी भी कुछ उम्मीद नहीं जगाते । टिकट ना मिलने से नाराज़ कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाकर इन द्लों का रुख कर लिया है । ऎसे में प्रदेश के विकास की बात कौन करे ? राजनीति में धन बल , बाहुबल और जात -पांत के समीकरणों का तोड ढूंढने के की शुरुआत कब होगी और कैसे ? यह बुनियादी सवाल हर पांच साल बाद आ खडा होता है ...... जवाब की तलाश में....... ?

मुंह खुला है उधर खज़ाने का , मुड रहा है वरक ज़माने का
और इधर कहत दाने - दाने का , कस्द [निश्चय] फ़िर भी पहाड ढहाने का ।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

भोपाल की मुस्लिम औरतें और तलाक

लगातार चार पीढ़ियों तक बेगमों की हुकूमत देख चुके भोपाल में मुसलमान महिलाओं के मिज़ाज बदल रहे हैं और इसका असर यह है कि इस समाज में अब मर्दों के मुकाबले औरतें आगे बढ़कर अपने शौहर से तलाक़ ले रही हैं आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष २००४ में तलाक़ के जितने मामले दर्ज हुए उनमें से तीन चौथाई यानी ७५ प्रतिशत से ज़्यादा औरतों की ओर से लिए गए तलाक़ थे ।

भोपाल और आसपास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय में तलाक के बढते मामलों ने समाज के रहनुमाओं को भी चिंता में डाल रखा है । २००६ -२००७ में ४९८८ निकाह रजिस्टर्ड हुए और इसी साल ३२० तलाक हुए । इसी तरह साल २००७ - ८ में ५४१२निकाह पढे गये और शादी से बाहर आने वालों की तादाद रही - ३३२ । इस साल अक्टूबर आते तक २५३ जोडों ने अपनी राह जुदा कर लेने का फ़ैसला कर लिया , जबकि इस दौरान निकाह हुए ४५२५ । तलाक के ये आंकडॆ किसी भी लिहाज़ से काफ़ी चौंकाने वाले हैं ।

इस्लाम में इजाज़त दी गई चीज़ों में तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद बताया गया है । इसके बावजूद तलाक का सिलसिला कहीं थमता दिखाई नहीं देता । लगता है लंबे समय से एकतरफा तलाक़ की तकलीफ सह रही महिलाएँ अब आज़िज़ आ चुकी हैं । भोपाल के कज़ीयात में मौजूद रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो लगता है औरतें अब मर्दों के जुल्म सहने के लिए तैयार नहीं । आँकड़ों के मुताबिक़ २००४ में हुए २४१ तलाक़ में से १८५ में महिलाओं ने अपनी मर्ज़ी से वैवाहिक रिश्ते को ख़त्म किया । यानी ७७ फ़ीसदी तलाक़ महिलाओं ने लिए । समाज में आया ये बदलाव मज़हबी गुरू, महिलाओं और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाला है । मुसलमान महिलाओं का बदलता स्वरूप इन सबकी निगाह में किसी भी तरह से अच्छा नहीं है ।

ज़्यादातर बुज़ुर्गों का मानना है कि परिवार टूटने का सबसे ज़्यादा खमियाज़ा बच्चे उठाते हैं । परिवारों के बिखराव को देखने का हर शख़्स का अपना नज़रिया है । किसी की निगाह में इसके लिए नैतिक मूल्यों में आई गिरावट ज़िम्मेदार है , तो कोई इसके पीछे महिलाओं की आर्थिक रुप से खुद मुख्तियारी देख रहा है । महिलाओँ के हक़ की लडाई लड़ने वाले संगठन भी महिलाओं में तलाक़ लेने की प्रव्रत्ति पर नाखुशी ज़ाहिर करते हैं । मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्लाम तलाक़ को मान्यता और इजाज़त देता है. मगर अभी तक उसे एक हथियार के तौर पर ही आदमी अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है ।

कुछ लोग इसे सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव और भोपाल में १२० साल तक औरतों की हुकूमत से जोड कर भी देखते हैं । भोपाल में नवाब शाहजहाँ बेगम, सिकंदरजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने समाज में भारी बदलाव किया और औरत को वो मुकाम दिया जो मुल्क में दूसरी जगह उन्हें हासिल नहीं था ।

सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बहुत सी औरतों को अपने शौहर से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है । कई मामलों में आर्थिक मज़बूती औरतों को दमघोटू रिश्ते को ख़त्म करने का हौसला दे रही है । आर्थिक मज़बूती और आत्मनिर्भरता का असर सिर्फ़ भोपाल में ही इस तरह दिखाई दे रहा है या फिर दूसरी जगह भी इसका असर वैसा ही है , इसका पता लगाना बेहद ज़रुरी है । तलाक के मामले में पहल मर्द करे या फ़िर औरत , टूटता हर हाल में परिवार ही है , जो ना उस घर सदस्यों के लिए अच्छा है और ना ही पूरे समाज के लिए ...... ।

झुक गयी होगी जवां - साल उमंगों की ज़बीं
मिट गयी होगी ललक , डूब गया होगा यकीं
छा गया होगा धुआं , घूम गयी होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढहाया होगा ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

.............. झील की मौत पर गिद्ध भोज की तैयारी !

ताल - तलैयों के शहर के तौर पर मशहूर भोपाल की पहचान खतरे में है । यहां की बडी झील शायद पूरे भारत की एकमात्र मानव निर्मित विशालकाय जल संरचना होगी । मुझे याद है वो दिन जब हम गर्मी की छुट्टियां बिताने इंदौर जाया करते थे और अप्रैल - मई की तपते दिनों में भी भोपाल से ४० किलोमीटर दूर सीहोर से कुछ किलोमीटर पहले तक बडा तालाब हमें बिदाई देने आया करता था । हिलोरें लेता तालाब बालमन में अथाह समुद्र की छबि साकार कर देता ।

बूंद - बूंद पानी के लिए जद्दोजहद करते इंदौरियों के बीच " हमारा बडा तालाब " हमें अजीब सी ठसक और फ़्ख्र से भर देता । लेकिन हमारा वही गुमान अब अंतिम सांसे गिन रहा है । तालाब दम तोड रहा है । लेकिन झील की मौत पर सोगवार होने वाले लोग ढूंढे से नहीं मिल रहे । हां ,जगह - जगह चील गिद्ध मृतयुभोज की तैयारियों में मसरुफ़ हैं । लोगों ने पोस्टर बैनर झाड - पोंछकर तैयार कर लिए हैं । मंहगा पेट्रोल फ़ूंक कर सडकों पर गाडियां दौडाते हुए पानी बचाने की सीख दी जा रही है ।

इस बीच एक बडे समूह को भी पानी की कीमत का एहसास हो ही गया । सो ’ जल है ,तो कल है ’ के नारे के साथ शहर में जल सैनिक बनाने की मुहिम छेड दी गई है । जल सत्याग्रह की ये कोशिश कितनी ईमानदार है , इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा । भोज वेटलैंड परियोजना के नाम पर विदेशी मदद के अरबों रुपए पानी में बह गये ,मगर बडी झील का पानी नहीं बचाया जा सका ।

बेशर्मी का आलम ये है कि सूखी झील पर फ़सलें लहलहाने लगीं , तब कहीं प्रशासन को होश आया । यूं तो बडा तालाब ३१ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला था लेकिन इस साल बारिश की कमी के कारण अब सिर्फ़ १० वर्ग किलोमीटर दायरे में सिमट कर रह गया है । भू माफ़िया ने १५० एकड से ज़्यादा हिस्से में खेती शुरु कर दी । बहरहाल देर से ही सही प्रशासन को होश तो आया । फ़िलहाल ज़मीन का बेज़ा कब्ज़ा हटा दिया गया है । आगे भगवान मालिक ........।

झील की लाश पर मौज उडाने वाले ये भूल बैठे हैं कि पानी कारखानों में बनने वाला प्राडक्ट नहीं है । कुदरत की इस नायाब नियामत की नाकद्री मंहगी पडेगी हमें भी और आने वाली नस्लों को भी । लोग पैसा बचा रहे हैं और पानी बहा रहे हैं । नल की टोंटी खोलते ही आसानी से मिल जाने वाला पानी आने वाले वक्त में इस लापरवाही की क्या कीमत वसूलेगा । इसके महज़ एहसास से रुह कांप उठती है ।

राजधानी के पुराने इलाके में नवाबी दौर की करीब २५० बावडियां और कुएं बदहाली के शिकार हैं । किसी ज़माने में ये पारंपरिक जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाते थे । साथ ही उनके रोज़मर्रा के कामों के लिए भी भरपूर पानी मुहैया कराते थे । हैरानी है कि भारी उपेक्षा के बावजूद १०० से ज़्यादा बावडियों का वजूद अब भी कायम है । हम सभी को समझना होगा कि जल है तो जीवन है या जल है तो कल है जैसे लोक लुभावन नारों के उदघोष से काम नहीं बनने वाला । पानी की मित्तव्ययिता का संस्कार पैदा करना होगा । एक बार फ़िर लौटना होगा अपनी परंपराओं की ओर जो हमें प्रकृति से लेना ही नहीं वापस लौटाना और संरक्षण की सीख भी देती हैं । पानी की अहमियत को समझाने के लिए ये दोहा है -

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ,
पानी गये ना उबरे मोती , मानस , चून ।

रविवार, 2 नवंबर 2008

लोक परंपराओं और वन संपदा के सौदागर

हमारे पौराणिक ग्रंथों में पाताललोक का ज़िक्र अक्सर आता है । पाताल कहते ही ज़ेहन में एक चित्र उभरता है , जो हमें धरती के नीचे सात पातालों की कल्पना में पहुंचा देते हैं । देश के ह्र्दय कहलाने वाले मध्य प्रदेश की धरती पर एक यथार्थ लोक है - पातालकोट । छिंदवाडा ज़िले के उत्तर में सतपुडा के पठार पर स्थित पातालकोट कुदरत की अदभुत रचना है । ८९ वर्ग किलोमीटर में फ़ैली पातालकोट की धरा को नज़दीक से निहारना अपने आप में कौतूहल से भरा अनूठा अनुभव है ।

यहां के किसी भी गांव तक पहुंचने के लिए १२०० से १५०० फ़ीट की गहराई तक उतरना पडता है । घाटियां इतनी नीचे चली गई हैं कि उनमें झांक कर देखना भी मुश्किल है । ऎसा लगता है यहां शिखरों और घाटियों में होड लगी है , कौन कितना गौरव के साथ ऊंचा जाता है और कौन कितना विनम्रता के साथ झुकता हुआ धरती के अंतिम छोर को छू सकता है । इस कोशिश के गवाह हैं तरह - तरह के पेड - पौधे , जो घाटियों के गर्भ में और शिखरों की फ़ुनगियों पर बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं । निर्मल झरने , झिरियों और सरिताओं ने पातालकोट को नया जीवन दिया है ।

राजाखोह , दूधी और गायनी नदियों के उदगम की गहरी खाइयों में सूरज की किरणें अलसाती हुईं दोपहर बारह बजे तक दस्तक देने पहुंचती हैं और किसी प्रेयसी की तरह जल्द से जल्द मुलाकात खत्म कर लौट जाने की फ़िराक में रहती हैं । शाम चार बजने तक अंधियारा पांव पसारने लगता है । पातालकोट में भारिया जनजाति के लोग सदियों से रहते हैं । बाहरी दुनिया से अनजान इन लोगों की ज़िन्दगी में देश - दुनिया की विकास की गौरव गाथा का भी कोई पहलू शामिल नज़र नहीं आता । यहां दो - ढाई हज़ार लोग अजूबे की ज़िंदगी जी रहे हैं ।

वन संपदा के धनी इस इलाके के विकास के लिए सरकार अब तक अरबों रुपए फ़ूंक चुकी है । भारिया जनजाति के विकास और उसकी संस्क्रति को सहेजने के लिए विशेष पैकेज बनाए गये लेकिन नताजा वही - ढाक के तीन पात । न तो भारिया अब तक समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके और न ही आदिवासियों का पारंपारिक औषधीय ग्यान बाहरी लोगों तक पहुंच सका है ।

यहां के लोग भुमका और गुनिया पर सबसे ज़्यादा विश्वास करते हैं । गुनिया जडी - बूटी का अच्छा जानकार होता है , जबकि भुमका मारक - तारक तंत्र - मंत्र में माहिर माना जाता है । भुमका नाडी देखकर बीमारी का निदान करते हैं । उनका कहना है कि हम बगैर पढे - लिखे लोग दिल पढना जानते हैं और वही पढकर रोग की जड का पता लगा लेते हैं । भुमका कहते हैं - " नाडी देखकर भगवान के नाम पर पानी छोड देते हैं । इससे बीमारी ठीक हो जाती है ।" उनके मुताबिक दिल की गहराइयों से बोले गये मंत्र असर करते हैं । दी गई जडी - बूटियां फ़ौरन फ़ायदा पहुंचाती हैं ।

पातालकोट में ऎसी जडी - बूटियां पाई जाती हैं , जो भारत में कहीं और मिलना नामुमकिन है । शायद इसीलिए कई निजी कंपनियों ने विदेशी कंपनियों से हाथ मिलाकर यहां डेरा डाल दिया है । इंटरनेट के ज़रिए यहां की दुर्लभ जडी - बूटियां विदेशों में बेची जा रही है । वन संपदा के बेतरह दोहन से सरकार अनजान बनी हुई है । इलाके में एकाएक व्यापारिक गतिविधियां बढ जाने से बाहरी लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढी है । अनमोल जडी बूटियों को बाज़ार में बेचकर तिजोरी भर रहे व्यापारियों ने कुदरत के बेशकीमती खज़ाने में सेंध लगा दी है । कई जडी बूटियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं । लेकिन वन विभाग इससे बेखबर है ।

बाहरी लोगों का भारिया जनजाति के रहन - सहन पर भी खासा असर साफ़ दिखाई देने लगा है । ढोल और मांदल की थाप पर थिरकने वाले ये वनवासी अब पाश्चात्य संगीत पर झूम रहे हैं । नई पीढी लोकगीत और लोकधुनों को बिसरा चुकी है । फ़िल्मी गीतों की दीवानगी इस कदर बढी कि अब ढोल - नगाडॆ नौजवानों के लिए गुज़रे ज़माने की बात हो चले हैं ।

बाहरी चमक दमक का असर इस हद तक बढ गया है कि भारिया जनजाति की लोक संस्क्रति और परंपराओं के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है । भोले भाले आदिवासियों को सस्ते म्यूज़िक प्लेयर थमाकर व्यापारी अनमोल जडी - बूटियों पर हाथ साफ़ कर रहे हैं । अब तो बुज़ुर्ग भारिया भी मानने लगे हैं कि पातालकोट की पहचान बचाने के लिए दुर्लभ जडी - बूटियों के बेजा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाना ज़रुरी है । वे आदिवासी परंपराओं के शहरीकरण को लेकर भी चिंतित हैं ।

दुआ है दुश्मनों को , जो सरे आम बुरा करते हैं
उन दोस्तों से तौबा ,जो दोस्ती में क्त्लेआम करते हैं ।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में ’उमा फ़ेक्टर’ की दह्शत

उमा भारती ने चुनावी समर में हुंकार भर कर बीजेपी की नींद उडा दी है । साध्वी प्रज्ञा सिंह को भारतीय जन शक्ति पार्टी से चुनाव लडने का न्यौता देकर उन्होंने बीजेपी की जान सांसत में डाल दी है । उमा ने साध्वी के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है और उसे उसी के हिन्दू कार्ड से मात देने की पूरी बिसात बिछा दी है । प्रज्ञा सिंह के मामले से कुछ दिन पहले तक पल्ला झाडती नज़र आ रही बीजेपी को मजबूरी में ही सही इस मसले पर सामने आना पडा है ।

उमा भारती के राजनीतिक भविष्य पर विराम की संभावनाएं तलाशते भाजपाई नेता दोबारा गद्दीनशीं होने का रास्ता सीधा - सपाट मान बैठे थे । मध्य प्रदेश कांग्रेस की आपसी सर फ़ुटौव्वल के कारण उनका ये खवाब हकीकत में बदलने की गुंजाइश भी साफ़ - साफ़ नज़र आ रही थी ,लेकिन हाशिए पर जा चुकी उमा ने प्रहलाद पटेल के साथ सुलह करके बीजेपी की राह में कांटे बिछा दिए हैं । बिखराव की राजनीति के सहारे आगे बढना नामुमकिन है , इस हकीकत से वाकिफ़ होने के बाद दोनों नेताओं ने समय रहते गिले - शिकवे भुलाकर ऎक साथ आने में ही भलाई समझी । दोनों का मकसद एक है और मंज़िल भी एक ही ।

भाजपा को कांग्रेस से कडी चुनौती तो मिलना तय है ,लेकिन चुनाव में उमा फ़ेक्टर को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । उमा भी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखने की जुगत भिडाने में लगी हैं । छोटे - छोटे दल भी सत्तारुढ पार्टी का सिरदर्द बन गये हैं । इस मर्तबा प्रदेश के चुनावी जंग में प्रमुख दलों के अलावा छोटी पार्टियां भी निर्णायक भूमिका निबाहेंगी ।

मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपने पैर मज़बूती से जमा लिए हैं । इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी , लोक जनशक्ति पार्टी और वामपंथी दलों ने भी अपने स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर ली है । मुखतलिफ़ राजनीतिक विचारधारा के बावजूद सीटों के तालमेल पर उमा की प्रांतीय दलों से पटरी बैठ सकती है । ऎसे में मायावती का साथ यदि उमा को मिल गया , तो प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे । सत्ता की आस लगाए बैठी कांग्रेस तथा बीजेपी को नाकों चने चबाना होंगे ।

लगता है उमा का चुनावी मोटो है - हम तो डूबेंगे सनम ,तुम को भी ले डूबेंगे .......।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

आह को चाहिए इक उम्र ......

मलिका - ए - गज़ल को गुज़रे ३४ साल बीत चुके हैं ,लेकिन उनकी दिलकश आवाज़ अब भी फ़िज़ा में गूंजती है । जब कभी भी बेगम अख्तर की पुरनम आवाज़ कानों में पड जाती है ,ऎसा मालूम होता है मानो वक्त ठहर गया हो । उनकी खनकती आवाज़ की कशिश अपनी ओर खींचती है ।

बेगम ने मीर , गालिब , दाग और मोमिन जैसे नामचीन शायरों के अशारों को खास बंदिशों में पेश कर कमाल कर दिया । अगर कहा जाए कि बेगम अख्तर ने गालिब को हर दिल अज़ीज़ बनाने का काम किया ,तो कुछ गलत नहीं होगा । गालिब की गज़ल - ’आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक , कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ’ और ’कोई उम्मीद बर नहीं आती ,कोई सूरत नज़र नहीं आती ,मौत का एक दिन मुअय्यिन है नींद क्यों रात भर नहीं आती , को श्रोताओं ने खूब पसंद किया ।

उन्होंने नए दौर के शायरों के कलाम को भी बडी सादगी से , मगर बेहद अलग अंदाज़ में पेश किया । शकील बदायुंनी की गज़ल ’ ए मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया / जाने क्यों आज सरे शाम से रोना आया ’ तो आज तक हर दिल में जवां है । उन्होंने कैफ़ी आज़मी , जिगर मुरादाबादी , हसरत जयपुरी के कलाम को भी सुरों की शक्ल में बखूबी ढाला । सुदर्शन फ़ाकिर की गज़ल - हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब / आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड दिया ’ अब तक लोगों की ज़बां पर है ।

गज़ल को लोकप्रिय बनाने और आम आदमी तक पहुंचाने में बेगम अख्तर का अहम किरदार रहाहै । हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित होने की वजह से जब वो गज़ल गाती , तो वह शास्त्रीय रागों से सजी होती थी । एक ही गज़ल को कई मर्तबा वो अलग - अलग रागों में तैयार करती थीं । उनकी गायकी में लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत का मुज़ाहिरा होता है । गज़ल के साथ उनकी गायी होली , खयाल , ठुमरी , दादरा भी खूब पसंद किए गये ।

पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में हुए कंसर्ट काफ़ी मकबूल हुए । २६ अक्टूबर १९७४ को अहमदाबाद में स्टेज पर गाते हुए उन्हें दिल का दौरा पडा । वे उस वक्त - ’ऎ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया ’ गज़ल गा रही थीं । इन लाइनों को गाने के दौरान ही वे गिर पडीं । चार दिन बाद ३० अक्टूबर को बेगम अख्तर फ़ानी दुनिया से रुखसत हो गईं । लेकिन उनकी आवाज़ का नशा अब भी लोगों को दीवाना बना देता है । उनके खनकती आवाज़ के मुरीद अब भी गुनगुनाते हैं - ज़रा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा , ज़रा धीरे ,तुम धीरे ........।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

बिहार में मचे बवाल पर सुलगते सवाल


बिहार में पिछले तीन दिनों से चल रहे बवाल का मकसद समझ से बाहर है । इम्तेहान देने गये बिहारी युवकों की मुम्बई में पिटाई पर भी इतना हंगामा नहीं हुआ । यहां तक कि राज की गिरफ़्तारी और ज़मानत पर छूटने के स्क्रिप्टेड ड्रामे पर भी खामोशी का आलम रहा । फ़िर एकाएक ऎसा क्या गुज़्रर गया , जो बिहार में ट्रेनें जलाने , रेलगाडियां रद्द करने या मारपीट की नौबत आ गई । राज का गुस्सा अपने ही प्रदेश में अपने ही लोगों पर निकाल कर आखिर क्या साबित करने की कोशिश हो रही है ?

बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है - राज ठाकरे , शिव सेना , लालू यादव या फ़िर अपने आप पर । राज ठाकरे के आग उगलते बयानों ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर ला दिया है । मेरी नज़र में लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को राज ने एक मौका दिया है सूबे के रहनुमाओं से जवाब तलब करने का । बिहार में बेवजह हो रहे इस फ़साद के मकसद को समझना बेहद ज़रुरी है । कहीं ऎसा तो नहीं कि युवा जोश को सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है ।

वैसे तो राजनीतिक समझ के मामले में बिहार का आम आदमी भी होशियार माना जाता है । हिन्दी अखबारों के दफ़्तरों में आज भी धुरंधर पत्रकारों की फ़ेहरिस्त में ज़्यादातर नाम बिहारी ही मिलेंगे । ऎसे में ये समझ पाना बडा ही मुश्किल है कि राज को गुंडा , आतंकवादी और देशद्रोही करार देने वाले लोग अपने प्रदेश के नेताओं से राज्य के हालात का लेखा जोखा क्यों नहीं मांगते ?

देश - दुनिया के राजनीतिक हालात , और तो और दफ़्तर की उठापटक में घंटॊं सिर खपाने वाले ये धुरंधर आखिर अपने राज्य के दिनोंदिन बदतर होते हालात पर क्यों खामोशी अख्तियार किए हैं । ट्रेनें रद्द करने का यकबयक लिया गया फ़ैसला भी हैरानी में डालने वाला है । राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के दौरान भी तब तक रेल सेवा जारी रही , जब तक हालात हिंसक होकर बेकाबू नहीं हो गये । रोज़ी की जुगाड में अन्य राज्यों में बसे बिहारियों को ऎन दीपावली पर घर लौटने से रोककर आखिर कौन सी सियासती चाल चली जा रही है ।

अगर ये ट्रेनों के ज़रिए राजनीति चमकाने की बेहूदा कोशिश हो रही है , तो इसे पहचान कर तुरंत रोकने की ज़रुरत है ,क्योंकि आखिर में ये बिहार को ही नुकसान पहुंचाने वाला कदम साबित होगा । अगर ये बिहार की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार नेताओं के खिलाफ़ फ़ूटा गुस्सा है , तो काबिले गौर है । बिहार के युवाओं को सियासतदानों से हिसाब मांगना ही होगा अपने भविष्य और अपने अतीत का भी ........।
हम वो राही हैं जो मंज़िल की खबर रखते हैं
पांव कांटों पे , शिगूफ़ो पे नज़र रखते हैं
कितनी रातों से निचोडा है उजाला हमने
रात की कब्र पे बुनियादे सहर रखते हैं

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

इठलाती , बल खाती , गुनगुनाती .......


पूर्ब से पश्चिम की तरफ़ जाने वाली नर्मदा देश की एकमात्र ऎसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है । नर्मदा परिक्रमा के अनुष्ठान की परंपरा कब शुरु हुई ये कह पाना तो ज़रा मुश्किल होगा । लेकिन हर साल करीब पांच लाख से ज़्यादा श्रद्धालु नर्मदा की परिक्रमा पर निकलते है । आमतौर पर अमरकंटक से यात्री अपना सफ़र शुरु करते हैं और रेवा सागर संगम तक करीब १३३५ किलोमीटर का रास्ता तय कर पहले चरण को अंजाम तक पहुंचाते हैं । दूसरे चरण में उत्तर तट से अमरकंटक तक १८३६ किलोमीटर की यात्रा होती है ।
सरदार सरोवर , ओंकारेश्वर और रानी अवंतिबाई बांध बनने से परिक्रमा मार्ग का बडा हिस्सा डूब चुका है । बची खुची कसर प्रस्तावित महेश्वर बांध पूरी कर देगा । नर्मदा में आस्था रखने वालों के लिए राज्य सरकार ने बडे ज़ोर शोर से सर्वे कराया । परिक्रमा मार्ग को व्यवस्थित और सुविधाओं भरा बनाने के लिये नामचीन हस्तियों की कमेटी का एलान हुआ और भारी - भरकम कार्य योजना का खाका तैयार किया गया । मगर हमेशा की तरह नतीजा सिफ़र ।
नर्मदा के भक्त तो तमाम मुश्किलात के बावजूद अपनी मंज़िल तक पहुंच ही जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के कामकाज के लिए बस यही कहा जा सकता है - नौ दिन चले अढाई कोस । दरअसल सरकार ने नर्मदा के तीरे जगह - जगह होटल , ढाबे और यात्री निवास बनाने के साथ पक्का परिक्र्मा मार्ग तैयार करने का प्रस्ताव बनाया है । यानी लोग तीर्थाटन के बहाने पर्यटन का लुत्फ़ भी ले सकेंगे । लेकिन परिक्रमा मार्ग तय करने में नौकरशाही का अडंगा श्रद्धालुओं की परेशानी का सबब बन गया है । सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल के चलते लोगों को अपनी तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड सकता है ।
नदियों से हमारे जीवन का आध्यात्मिक पहलू भी जुडा है । हालांकि बदलते वक्त में पाप - पुण्य की परिभाषा भी उलट गई है । ऎसे में ये कह पाना बडा ही मुश्किल है कि नर्मदा में डुबकी लगाते ही पाप नष्ट होते हैं या नहीं । हां ,इतना ज़रुर है कि सतत प्रवाहिणी रेवा की जलधारा जीवन की कठिनाइयों से बैचेन मन का ताप हर लेती है । रेवा तट पर प्राक्रतिक सौंदर्य से लबरेज़ कई जगहें हैं जहां सुकून मिलने के अलावा कुदरत के साथ एकाकार होने का एहसास होता है । पवित्र धार्मिक ग्रंथों में आता है कि गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है , जबकि नर्मदा का दर्शन मात्र ही जन्म - मरण के चक्र से मुक्ति देता है । किंवदंती है कि गंगा भी साल में एक बार काली गाय के रुप में नर्मदा में स्नान करने आती है ।
क़रीब तेरह सौ किलोमीटर के सफ़र में नर्मदा मध्य प्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र के बडे हिस्से में प्रवाहित होती है । भडौंच के नज़दीक खंबात की खाडी में अपने अस्तित्व को अथाह सागर में समाहित करने वाली नर्मदा वन अंचलों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक समान रुप से वंदनीय है । गायन और संगीत प्रधान सामवेद में नर्मदा की महिमा का बखान किया गया है । नर्मदा भी सागर तक की अपनी यात्रा गाते - गुनगुनाते हुए करती है । कहते हैं गंगा कनखल और सरस्वती कुरुख्शेत्र में सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है । परंतु नर्मदा की महिमा का कोई पार नहीं । वो तो गांव - गांव और डगर - डगर , सब जगह हर रुप में पवित्र हैं ।
मैदानी इलाकों में शांत और गंभीर नज़र आने वाली ये पुण्य सलिला वनांचलों के बीच कहीं चट्टानों से टकराकर उन्हें शिकस्त देने के मद में इठलाती हुई आगे बढती है । अपनी मंज़िल तक पहुंचने की बेताबी में कुंलाचे भरती रेवा ऊंची चट्टानों की परवाह भी नहीं करती । यहीं देखा जा सकता है जल प्रपातों का अदभुत सौंदर्य । चट्टानों से टकराकर ,उछल - उछल कर ’ रव ’ यानी ’ध्वनि’ करती है , इसीलिए तो रेवा कहलायी ।
कभी नज़र से नज़र मिलाकर , कभी नज़र से नज़र बचाकर
डुबो रही थी , मिटा रही थी , पिला रही थी , छका रही थी ।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

राज की सियासत और बिहार की ज़मीनी हकीकत

महाराष्ट्र सरकार के लचर रवैए ने पूरी मुंबई और कई बडे शहरों को आग में झोंक दिया । एक खत्म हो चुके नेता को इतना बडा हो जाने दिया कि अब हालात बेकाबू हो चले हैं । महाराष्ट्र में राज समर्थक और बिहार में राज विरोधियों का उत्पात लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है । कहते हैं समझदार बागबान वही होता है जो बगीचे की खूबसूरती में खलल डालने वाले जंगली पौधों को शुरुआत में ही जड से उखाड फ़ेंके । लेकिन राज के मामले में तो बीज को खाद - पानी देकर दरख्त बनने का मौका दिया गया । पेड के तने को काटने की ज़हमत अब उठाई है ,जब उस पर फ़लों की आमद हो चुकी है ।
इस बीच बिहार के कई शहरों में राज के खिलाफ़ नफ़रत की आग ज़ोर पकडने लगी है । लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वहीं का वहीं है । आखिर क्यों बिहार से दूसरे राज्यों को जाने वाली ट्रेनें खचाखच भरी रहती हैं ? गंगा किनारे की उपजाऊ ज़मीन जो पूरे देश का पेट भर सकती है , वहां लोगों को भूखे पेट सोना पडता है । बहुमूल्य खनिज संपदा से जिस इलाके को कुदरत ने नवाज़ा हो , वहां का आम आदमी अपनी पहचान और दो जून की रोटी की तलाश में भटकता है ।
नेपाल की सडकें हों या मुम्बई या फ़िर चैन्नई हर जगह मायूसी और बेचारगी से भरे कुछ चेहरे आपको दिख जाएंगे । उबले चनों की चाट या सब्ज़ी का ठेला चलाते ये लोग किसी बडॆ हसीन खवाब की तलाश में घर से दूर नहीं आते । वो क्या कारण हैं कि ये लोग इतने छोटे - छोटे कामों की तलाश में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करने को मजबूर हैं ।
मौर्य और नंद वंश के वैभवशाली इतिहास के गवाह बने इस इलाके के मौजूदा हालात के लिए यहां के नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं । धाकड नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त देने वाला बिहार इन्हीं नेताओं की बेरुखी की सज़ा भुगत रहा है । नैसर्गिक संपदा के अथाह भंडार का प्रदेश की जनता के हित में यदि सदुपयोग नहीं हो सका ,तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
लालू यादव जब तक प्रदेश में राज करते रहे उन्हें कभी बिहारियों की सुध नहीं आई । रेल मंत्री बनते ही बिहार के बेरोज़गार युवाओं के उद्धार के इस जनसेवी कदम की हकीकत कुछ और ही है । छन - छनकर आने वाली खबरें बताती हैं कि रेलवे में अपना भविष्य तलाशने वाले युवाओं को खेत , ज़मीन और मकान के रुप में कीमत चुकाना पडी है । बिहार में नेताओं और अफ़सरों के गठजोड ने आम आदमी को पलायन के लिए मजबूर किया है । बिहार ने देश को कई प्रतिभावान पत्रकार दिए हैं लेकिन बेहद अफ़सोसनाक पहलू ये भी है कि यहां के हालात में रद्दो बदल पर ईमानदारी से अब तक किसी ने कलम नहीं चलाई ।
और अब कुछ तथ्य आंकडों की ज़ुबानी -
१ . २००१ की जनगणना के मुताबिक़ दिल्ली की आबादी १ करोड़ ३७ लाख के क़रीब , इसमें २७ लाख से अधिक बिहारी ।
२ २००१ में बिहार की आबादी ८ करोड़ २८ लाख ७८ हजार ।
३. मोटे तौर बिहार के साढ़े तीन फीसदी लोग अकेले दिल्ली में आ बसे ।
४. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग बिहार से बाहर जाते हैं
५। फ़िलहाल कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं ।
जिस बात का खतरा , सोचो कि वो कल होगी
ज़रखेज़ ज़मीनों में बीमार फ़सल होगी
स्याही से इरादों की तस्वीर बनाते हो
गर खून से बनाओ , तो तस्वीर असल होगी ।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

अकेले राज ही तो कसूरवार नहीं ..........

आखिरकर राज की गिरफ़्तारी को लेकर चल रही कश्मकश का फ़िलहाल तो खात्मा हो गया लगता है । गैर मराठियों को महाराष्ट्र के रंग में रंगने की चाहत के साथ सियासी जंग में किस्मत आज़माने निकले राज ठाकरे की राजनीतिक हैसियत बढाने में मीडिया , कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का खास रोल है । अपने सियासी नफ़े नुकसान को मद्देनज़र रखकर इन द्लों ने बयानबाज़ी की । राज्य सरकार ने शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर मामले को हवा दी । शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को हासिल करने के लिए शुरु हुई वर्चस्व की लडाई को दूसरे द्लों ने अपने - अपने फ़ायदे के लिए तूल दिया । हालांकि यह पहली बार नहीं है कि मुंबई में बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों को ऐसे हालात का सामना करना पडा हो । इससे पहले शिवसेना ऐसा कहती और बहुत कुछ करती रही है ।देश की वाणिज्यिक राजधानी की जीवनशैली पश्चिमी जीवनशैली के खुलेपन से ख़ासी प्रभावित है । इस शहर में ऐसा कौन सा प्रदेश है जहाँ के लोग न रह रहे हों और इसे अपना शहर न मानते हों । यह और बात है कि बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों की संख्या बाक़ी प्रदेश के लोगों से कुछ ज़्यादा है । इस बात से न शिवसेना इनकार कर सकती है और न महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कि मुंबई की कई ऐसी मूलभूत सेवाएँ हैं जो इन्हीं बिहार और उत्तरप्रदेश से आए लोगों के भरोसे चलती हैं । निश्चित तौर पर बाल ठाकरे और राज ठाकरे इस आबादी को अपने वोट बैंक का हिस्सा नहीं मानते और उन्हें यह डर सताता रहता है कि कहीं इस आबादी की अपनी राजनीति मुंबई में इतनी हावी न हो जाए कि वे ही दरकिनार कर दिए जाएँ । आश्चर्य होता है कि उसी प्रदेश में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे दूसरे राजनीतिक दल भी इस तरह की राजनीति का वैसा विरोध नहीं करते जैसा कि राष्ट्रीय पार्टी को करना चाहिए । विरोध का स्वर उठाने वाले लालू यादव , मुलायम सिंह और नीतिश कुमार जैसे नेता हैं , जो खुद सवालों के घेरे में हैं । केवल दिखावे के लिए विरोध करने वाले इन नेताओं ने क्या कभी ईमानदारी से सोचा कि बिहार और उत्तरप्रदेश के ही लोगों को इतनी बड़ी संख्या में क्यों पलायन करके मुंबई जाना पड़ता है । क्यों उन्हें जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की विषम परिस्थितियों में जीते हुए जान जोख़िम में डालकर रहना पड़ता है । क्या कभी इस तरह की राजनीति करने वालों ने विचार किया है कि जम्मू-कश्मीर और बस्तर के अबूझमाड़ जैसे सघन आदिवासी इलाके में देश के दूसरे हिस्सों से आने वाले नागरिकों के लिए नियम क़ायदे कुछ अलग हैं , लेकिन वे फिर भी वैसे नहीं हैं जिसका पाठ ये दोनों दल मिलकर पढ़ाना चाहते हैं । गनीमत है कि ब्रिटेन में अभी ठाकरे जैसे राजनीतिज्ञ नहीं हैं जो दीवाली और लोहड़ी मनाने वाले भारतीयों को वापस भारत भेजने की बात कहें या अमरीका में कोई फ़तवा जारी नहीं कर रहा है कि नियमित रुप से चर्च न जाने वाले भारतीय सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों के वीज़ा रद्द कर दिए जाएँ । बिहार और उत्तर प्रदेश से लाखों लोग आजीविका की तलाश में पलायन कर गए हैं । भारत के नागरिकों को मिले मूलभूत अधिकारों का हिस्सा है कि वह देश के किसी भी हिस्से में जाए वहाँ रहें रोज़गार तलाश करे और ज़मीन जायदाद ख़रीदकर वहाँ बस जाएं । तो ये कौन लोग हैं जो आज़ादी के इकसठ साल और संविधान लागू होने के ५९ साल बाद नागरिकों से उनके मूलभूत अधिकार छीनने की धमकी दे रहे हैं । कौन दे रहा है उन्हें यह अधिकार ....? उन्हें क्या हक़ पहुँचता है कि वे महाराष्ट्र के भीतर अपना राष्ट्र स्थापित करने की कोशिश करें ? कभी श्रीनगर में गिलानी ग़ैर-कश्मीरियों को निकालने की बात करते हैं और कभी असम में हिंदीभाषी लोगों को मार दिया जाता है । अगर किसी को अपने गाँव अपने शहर और अपने राज्य में रोज़गार के पर्याप्त और अच्छे अवसर मिलेंगे तो कोई क्यों इस तरह अपमानित होने और अपनी जान से हाथ धोने जाएगा ।भारत के कुछ राज्यों में उठने वाले ये सवाल जटिल नहीं हैं और न उनके जवाब कठिन हैं लेकिन इस पूरे मसले को राजनीति और वोट बैंक से अलग होकर देखना होगा जिसकी गुंजाइश फिलहाल भारतीय राजनीति में थोड़ी कम नज़र आती है । चुनावों में बिहार का पलायन कोई मुद्दा ही नहीं बनता । किस्तों में विस्थापित हो रहे इन लोगों की न तो बिहार के चुनाव में कोई सीधी भागीदारी है और न ही वहां के नेताओं को उनकी फ़िक्र । मुम्बई के अलावा दिल्ली और कोलकाता के साथ ही पंजाब और हरियाणा में भी बड़ी संख्या में बिहारी रोज़ी रोटी की तलाश में जा बसे हैं । वे रिक्शा चलाने और खोमचे-ठेले पर सब्जियां बेचने से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तरों तक में छाए हुए हैं । आँकड़े गवाही दे रहे हैं कि दस से पंद्रह सालों में पलायन बढ़ा है। । वैसे १९७० के दशक में पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के दौर में बिहार , उत्तर प्रदेश , उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जमकर पलायन हुआ । इनमें भी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग ज्यादा थे । वजह ये सस्ते खेतिहर मजदूर थे । बाद के दशकों में हसीन सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जाने वाले युवकों की संख्या बढ़ गई । बेशक इनमें से कई ऊंचों पदों पर बैठे हैं । लेकिन ऊंचे सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर की राह पकड़ने वाले न जाने कितने लोग बिहारी और भइया बनकर रह गए । बरसों पहले बिहार से बाहर जा बसे लोग मानते हैं कि बिहार की बदहाली ने लोगों को बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया । अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग रोजी रोटी की तलाश में बिहार से बाहर चले जाते हैं । आंकडों की ज़बान का यकीन करें तो अभी कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं । यह आंकड़े नहीं महत्वपूर्ण सूचनाएँ हैं कि बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है । वहां प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है ४२।३ फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं । लेकिन क्या बिहार के राजनीतिक क्या इन आँकड़ों को सुन-पढ़ रहे हैं । राज ठाकरे को कोसने की बजाय उस मुद्दे पर गौर किया जाए , जो बिहार के लोगों को सतरंगी सपने पूरे करने के लिए नहीं महज़ दो वक्त की रोटी की जुगाड में अपना घरबार छोडकर बाहर निकलने पर मजबूर करता है ।
हैरत की बात है कि वहां जी रहे थे लोग
गो शहर में कहीं भी हवा का गुज़र न था ।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

उन्हीं को जाम मिलता है जिन्हें पीना नहीं आता

राज ठाकरे ने एक बार फ़िर आग उगलाना शुरु कर दिया है । लेकिन उसके इस रवैए के लिए जितने राज ज़िम्मेदार हैं उससे कहीं ज़्यादा मीडिया की भूमिका है । राज के तमाशे को मीडिया हवा देता है । टीआर पी के जंजाल में उलझा मीडिया हर रोज़ चटपटी खबरों की तलाश में रहता है और राज मीडिया की इस कमज़ोरी का जमकर फ़ायदा लेना बखूबी जानता है । झटपटिया कामयाबी का नुस्खा कब तक काम आयेगा ये तो वक्त ही बताएगा , लेकिन इतना तय है कि नफ़रत की चिन्गारी लोगों के दिलों को छलनी ज़रुर कर देंगी ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

शराबियों का डाक्टर

घर , परिवार , समाज , देश और दुनिया में भले ही अलहदा वजूहात से निराशा और मायूसी का माहौल छाया हो , लेकिन कुदरत की नाइंसाफ़ी झेल रहे लोगों का हौसला जीने का सबब देता है । हर वक्त अपनी नाकामियों के लिए हालात और किस्मत को कोसने वाले तो अक्सर मिल जाते हैं ,मगर अपने जज़्बे से पथरीले उजाड रेगिस्तान में चमन खिलाने का हुनर चंद ही लोग जानते हैं ।
इरादे नेक हों और दिल में कुछ कर गुज़रने की चाहत हो , तो मुश्किलों को रास्ता बदलना ही पडता है । दोनों आंखॊं से देखने वाले दुनिया में छाये अंधियारे पर बहस करते या फ़िर निराशा में डूबते - उतराते हर तरफ़ नज़र आ जाएंगे । मगर उत्तर प्रदेश में सोनभद्र ज़िले के नंदलाल ने रोशनी की नई इबारत लिख डाली है ।
जन्म से ही दुनिया के रंगों से महरुम नंदलाल नहीं जानता कि सूरज की रोशनी कैसी होती है । लेकिन उसने सबको बता दिया कि दूसरों की ज़िंदगी में रंग कैसे भरे जाते हैं , कैसे कभी ना खत्म होने वाले तमस में असंख्य सूर्य किरणों का उजास फ़ैलाया जा सकता है ।
राम के नाम पर देश को बांटने वाले तो चारों तरफ़ फ़ैले हैं लेकिन नंदलाल ने राम नाम के ज़रिए लोगों को नशामुक्ति की राह दिखाई है । वो आदिवासी इलाकों में राम चरितमानस की चौपाइयों और दोहों को आधार बना कर लोगों को नशाखोरी से निजात पाने का मशविरा देते हैं।
शराब के कारण परिवारों को तबाह होने से बचाने के लिए वो शराब के अड्डे पर जा कर लोगों को समझाते हैं । मयखाने में शराब के नशे में झूमने वालों को वे रामधुन पर झूमने के लिए मजबूर करना वे बखूबी जानते हैं । बात बनती नहीं देख , नंदलाल शराबखाने के बाहर गाहे बगाहे अखंड रामायण पाठ शुरु कर देते हैं ।
नए अंदाज़ में कहे तो उन्होंने अपने अंदाज़ में गांधीगिरी का सहारा लिया है । इस मुहिम की कामयाबी से प्रभावित लोगों ने तो अब उन्हें नाम दे दिया है - शराबियों का डाक्टर । नंदलाल मिसाल है इस बात की कि जंग हौसलों से जीती जाती है हथियारों से नहीं । उसके इसी जज़्बे को सलाम ।
सदाकत [सच्चाई] हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़
हकीकत खुद को मनवा लेती है , मानी नहीं जाती ।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

देश के हालात पर वक्त का फ़रमान

लगता है दुनिया भर में बुरी खबरों का दौर चल पडा है । अमेरिकी मंदी के ज़लज़ले ने विश्व के तमाम छोटे - बडे देशों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है । कल तक सुनहरे भविष्य के ख्वाब संजोने वाले युवाओं के सामने रोज़ी - रोटी का संकट खडा हो गया है । स्टाक मार्केट की धोबी पछाड ने अच्छे - अच्छे धुरंधरों की चूलें हिला कर रख दी हैं । इस अफ़रा - तफ़री के माहौल में फ़ंडामेंटल और टेक्निकल एक्सपर्टस की सुनने वाला कोई नहीं बचा । बाज़ार की दुर्दशा से बेज़ार लोगों को हाल में आया एक सर्वे बेहाल करने पर आमादा है ।
खबरों पर यकीन करें तो भारत भीषण खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है । इसमें भी सबसे चिंताजनक हालात मध्य प्रदेश में बताए जा रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय खाद्यान्न नीति अनुसंधान संस्थान की ओर से पहली मर्तबा जारी रिपोर्ट में बारह राज्यों को अति गंभीर श्रेणी में शामिल किया है । संस्थान ने हाल के विश्व व्यापी खाद्यान्न सर्वे की ८८ विकासशील देशों की सूची में भारत को ६६ ववें पायदान पर रखा है ।
महानगरों की चकाचौंध के पीछे के भारत की स्याह हकीकत तरक्की और विकास के तमाम दावों की पोल खोलते नज़र आते हैं । विका़स के बावजूद भारत पच्चीस अफ़्रीकी देशों और बांगलादेश को छोड तमाम साउथ एशियाई देशों से नीचे है । शिशु म्रत्यु दर और कुपोषण के मामले में देश के हालात बांगलादेश से भी बदतर बताए गए हैं ।व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए मायूसी की बात ये है कि मध्य प्रदेश का हाल बेहाल है । लेकिन सरकार इस सबसे बेखबर बनी हुई है । समस्या का निदान तो तब हो ना जब ह्म उसे मानें या समझें । मगर की मद मस्ती का आलम ये है कि उसे सूबे में दूर - दूर तक कोई समस्या दिखाई ही नहीं देती । पूरे राज्य में सुख -शांति और अमन चैन की बयार बह रही है ,क्या हुआ जो चार -पांच सौ नौनिहालों की असमय ही मौत हो गई ।
कुदरत अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी का बदला अपने ही अंदाज़ में ले रही है । कहीं बूंद -बूंद पानी को तरसते लोग , तो कहीं सैलाब से तबाही । खेती को घाटे का सौदा मान कर शहरों का रुख करने वाले ग्रामीणों की तादाद दिनोदिन रफ़्तार पकड रही है । आबादी के बढते दबाव ने शहरॊं का विस्तार किया है और इस फ़ैलाव की कीमत चुकाई है उपजाऊ ज़मीन ने । शहरों के आसपास की ज़मीनें अब अनाज नहीं कांक्रीट के जंगल पैदा कर रही हैं ।
खाद्यान्न और पानी के बढते संकट की भयावह्ता को समझ कर अभी से कोई ठोस कदम नहीं उठाए , तो ज़मीनें और भोग विलासिता के ज़रिए तिजोरियां भरने वालों को सोना - चांदी चबाकर ही पेट भरना होगा । वक्त तो अपना फ़रमान सुना चुका है ,और अब बारी हमारी ............
इक कहानी वक्त
लिखेगा नए मज़मून की
जिसकी सुर्खी को ज़रुरत है
तुम्हारे खून की
वक्त का फ़रमान
अपना रुख बदल सकता नहीं
मौत टल सकती है ,
अब फ़रमान टल सकता नहीं ।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

शेयर बाज़ार की गिरावट का असर इतना तगडा है कि सरकार को हर रोज़ आकर सफ़ाई देना पड रही है । बाज़ार को सम्हालने के लिए तरह - तरह के टेके लगाने पड रहे हैं । इस बीच खबर आ रही है कि वित्त मंत्री ने भी अपनी नाकामी को मान लिया है । २३ हज़ार के करिश्माई आंकडे को देश की मज़बूत अर्थ व्यवस्था का प्रतीक बताने वाले अब बगलें झांक रहे हैं । मंदी की मार से चारों तरफ़ हाहाकार मच गया है , लेकिन सब एक दूसरे पर आरोप लगा कर खुद पाक - साफ़ बच निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं ।
ना था कुछ तो खुदा था ,कुछ ना होता तो खुदा होता ।
डुबोया मुझको होने ने ,जो फ़िर ना होता तो क्या होता ।
लाचारगी के इस दौर में मेरा भी मन किया क्यों छलनी में दूध लेकर किस्मत को दोष देकर देखॆं , आखिर अपनी खामियों की तोहमत किसी और के सिर मढने का मज़ा ही कुछ और है । उदारीकरण के दौर में हर चीज़ रेडिमेड लाने की आदत कुछ ऎसी बन गई कि पीढियों से चले आ रहे रसोई के कुघ ज़रुरी उपकरण गैर ज़रुरी लगने लगे और ना जाने कब कबाडी के ठेले पर लद कर रवाना हो गये । खैर तय कर ही लिया था ,सो चल पडे नई छलनी की तलाश में । लेकिन ये क्या जहां कन्ज़्यूमर प्राडक्ट के शोरुम्स पर सन्नाटा पसरा था , वहीं छलनी बेचने वाले को बात करने तक की फ़ुर्सत नहीं थी । मुंहमांगे दामों पर छलनी की पूछ परख ने हमें हैरानी में डाल दिया । तभी ब्यूटी पार्लर से सज संवर कर आई एक सुहागन ने छलनी के भाव एकाएक आसमान छूने का राज़ फ़ाश किया ।बातचीत में पता चला कर्क चतुर्थी का चांद छलनी की ओट से देखने का खास महत्व है।
ज़ेहन ने सवाल उठाया कि छलनी की गवाही के बगैर पति परमेश्वर का पूरा प्यार में कोई संदेह रहता है । घर आकर कई ग्रंथ खंगालें , लोगों से पडताल की ,लेकिन इस बात का खुलासा अब तक नहीं हो सका । लोकोक्तियों में बेचारी चलनी को तरह - तरह से कोसा गया फ़िर ऎसा क्या गुज़रा की वो सुहागिनों की नज़दीकी हमजोली बन बैठी । लोकाचार में सूपे को जो दर्ज़ा हासिल है , वो बहत्तर छेदों वाली इस चलनी को कभी नहीं मिल सका । सूपे को अपनी राय रखने का हक मिला लेकिन चलनी ......., उसकी बात का कोई मोल नहीं ? कहावत है -सूपा बोले तो बोले चलनी भी बोले ,जिसमें खुद ही बहत्तर छेद ।
बहरहाल इस बात को लेकर मेरी उत्सुकता काफ़ी बढ गई है । आखिर वो कौन सी वजह रही होगी , जो रसोई का ये गुमनाम हो चुका उपकरण बज़रिए बाज़ार महिलाओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय त्योहार का सबसे ज़रुरी तत्व ब न गया ।
क्या है छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने -१


मेरी पिछली पोस्ट करवा चौथ के बहाने पर मिलीं प्रतिक्रियाओं के मद्देनज़र चाहे अनचाहे महिला मुद्दे पर बात करना ज़रुरी लगने लगा इस पोस्ट को पढने के बाद कई लोगों ने मुझे जमकर लानत भेजी साथ ही ये भी हिदायत दे डाली कि परंपराओं का मज़ाक बनाना अच्छा बात नहीं किसी की आस्थाओं को चोट पहुंचाना मेरा मकसद बिलकुल नहीं था वैसे भी मैंने आलेख में ऎसी कोई गैर वाजिब बात कही भी नहीं सिर्फ़ वही लिखा ,जो दिखा बल्कि समाज के अलग - अलग वर्गों में औरतों की हालिया स्थिति को एक साथ रखने की छोटी सी कोशिश की
मेरा अब भी यही मानना है कि परंपराओं को त्यागने की नहीं , समय के मुताबिक ज़रुरी तब्दीली की ज़रुरत है देश के जिन प्रांतों में करवा चौथ और हरतालिका तीज का सबसे ज़्यादा महिमा मंडन है ,उन्हीं इलाकों की कडवी हकीकत ये भी है कि वहां महिलाओं के प्रति नज़रिया अब भी मध्ययुगीन ही है कन्या भ्रूण हत्या , बलात्कार , दहेज हत्या , अपहरण , छेड्छाड , मानसिक और शारीरिक उत्पीडन , और भी कई अनाम तरह की हिंसा का सबसे अधिक प्रतिशत वाला इलाका साल में दो बार महिलाओं को देवी का दर्ज़ा देकर पूजता है , लेकिन साल के बाकी दिन महिलाओं के अस्तित्व को नकारता नज़र आता है।
मैं कभी महिला स्वातंत्र्य की हिमायती नहीं रही आज़ादी किससे और क्यों ? मेरी राय में जब भी हम आज़ादी की बात कहते हैं तो कहीं ना कहीं इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि महिलाओं का मालिक पुरुष है दरअसल किसी और को दोषी करार देने या आज़ादी के लिए गिडगिडाने की बजाय महिलाओं को अपने अस्तित्व को भीतर तक जानने की ज़रुरत है किसी शायर ने क्या खूब कहा है ---
मैं इक उम्र के बाद खुद को समझा हूं ,
रुकूं तो किनारा , बहूं तो दरिया हूं
कई महिला पत्रिकाओं और अखबारों में महिला पाठकों के लिए परोसे जा रहे मसौदों पर भी मुझे सख्त एतराज़ है कब तक औरतें बनाव - श्रंगार , बुनाई - कढाई या सास - ननद के किस्सों में उलझी रहेंगी महिलाओं का एक समूह स्त्री विमर्श के नाम पर महिलाओं के नैसर्गिक गुणों पर अजीबोगरीब चर्चा कर खुद को धन्य मान बैठा है वहीं दूसरा बडा तबका सदियों से चली रही परंपराओं के निर्वहन में ही अपने जीवन की सार्थकता तलाश रहा है महिलाओं की तरक्की का रास्ता इन दोनों भूलभुलैयाओं के बीच से होकर गुज़रता है उम्मीद है पति, पिता ,भाई और बेटों की सलामती और तरक्की के लिए भूख प्यास भूलकर कठिन व्रत करने वाली भारत की नारी अपने अस्तित्व को पहचानने के लिए जल्द ही कोई रास्ता ढूंढ निकालेगी

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने


कर्क चतुर्थी यानी करवा चौथ का व्रत को पूरे ग्लैमर के साथ मनाने के लिए हर तरफ़ ज़ोर -शोर से तैयारियां चल रही हैं । कहीं महिलाएं खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए नए - नए नुस्खे आज़मा रही हैं , तो कहीं ब्यूटी पार्लर की ओर से मिलने वाले आकर्षक पैकेज का फ़ायदा लेकर रुप लावण्य को निखारा जा रहा है।
पति की लंबी उम्र की याचना हर रोज़ रुप बदलते चांद से करना भी बडा अजीब इत्तेफ़ाक है । कभी फ़िल्मों के ज़रिए प्रसिद्धि पाने वाले करवा चौथ की पापुलरिटी दिनोदिन तेज़ी से बढ रही है । एक तरफ़ तो देश में अलगाव और तलाक के मामलों का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर चढ रहा है । दूसरी ओर कर्क चतुर्थी पर अन्न जल त्याग कर चांद से पति परमेश्वर के दीर्घायु होने की कामना करने वाली पतिव्रता नारियों की तादाद भी कम नहीं । यह सामाजिक विरोधाभास कई सवालात को जन्म देता है।
वैसे इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि व्रत - त्योहारों का सामाजिक महत्व होता है । तीज - त्योहारों की गहमा गहमी जीवन की एकरसता को भंग कर उत्साह - उमंग का नया संचार करती है । बहरहाल समय के तेज़ी से घूमते चक्र के साथ परिस्थितियां भी बदली हैं । सामाजिक और घरेलू मोर्चे पर महिलाओं की भूमिका और दायित्वों में भी बदलाव आया है । रीति रिवाजों की डॊर से बंधी महिलाएं अजीब सी कशमकश में नज़र आती हैं । बकौल गालिब - इमां मुझे रोके है ,जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है , कलीसा मेरे आगे ।
दरअसल बदलते वक्त के साथ परंपराओं के स्वरुप में बदलाव लाना बेहद ज़रुरी है । आज के दौर में त्योहारों के मर्म को जानने समझने की बजाय हम परंपराओं के नाम पर पीढियों से चली आ रहे रीति रिवाजों को जस का तस निबाहे जा रहे हैं । संस्क्रति को ज़िन्दा रखने के लिए ज़रुरी है कि समय समय पर उसका पुनरावलोकन हो , गैर ज़रुरी मान्यताओं को छोडकर समय की मांग को समझ कर रद्दो बदल किए जाएं ।
इस बीच एक दिलचस्प खबर उन पति -पत्नियों के लिए जो जन्म -जन्म के साथ या फ़िर पुनर्जन्म की अवधारणा को सिरे से खारिज करते हैं । ऎसी महिलाएं जिन्हें घरेलू काम काज के लिए पतिनुमा नौकर की तलाश है ,उन्हें अब शादी के बंधन में बंधने की हरगिज़ ज़रुरत नहीं । अब आप काम काज के लिए घंटों के हिसाब से किराए पर पति ले सकते हैं । जी हैं ,अब पति की सेवाएं भी किराए पर उपलब्ध हैं । अर्जेंटीना की हसबैंड फ़ार सेल नाम की कंपनी साढे पंद्रह डालर प्रति घंटे के हिसाब से पति उपलब्ध करा रही है ।कंपनी का दावा है कि उसने अब तक दो हज़ार से ज़्यादा ग्राहक जोड लिए हैं और महिलाओं को ये सुविधा खूब पसंद आ रही है।

करवा चौथ पर खुद को वीआईपी ट्रीटमेंट का हकदार समझने वालों ,होशियार ..........