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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

बिहार में मचे बवाल पर सुलगते सवाल


बिहार में पिछले तीन दिनों से चल रहे बवाल का मकसद समझ से बाहर है । इम्तेहान देने गये बिहारी युवकों की मुम्बई में पिटाई पर भी इतना हंगामा नहीं हुआ । यहां तक कि राज की गिरफ़्तारी और ज़मानत पर छूटने के स्क्रिप्टेड ड्रामे पर भी खामोशी का आलम रहा । फ़िर एकाएक ऎसा क्या गुज़्रर गया , जो बिहार में ट्रेनें जलाने , रेलगाडियां रद्द करने या मारपीट की नौबत आ गई । राज का गुस्सा अपने ही प्रदेश में अपने ही लोगों पर निकाल कर आखिर क्या साबित करने की कोशिश हो रही है ?

बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है - राज ठाकरे , शिव सेना , लालू यादव या फ़िर अपने आप पर । राज ठाकरे के आग उगलते बयानों ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर ला दिया है । मेरी नज़र में लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को राज ने एक मौका दिया है सूबे के रहनुमाओं से जवाब तलब करने का । बिहार में बेवजह हो रहे इस फ़साद के मकसद को समझना बेहद ज़रुरी है । कहीं ऎसा तो नहीं कि युवा जोश को सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है ।

वैसे तो राजनीतिक समझ के मामले में बिहार का आम आदमी भी होशियार माना जाता है । हिन्दी अखबारों के दफ़्तरों में आज भी धुरंधर पत्रकारों की फ़ेहरिस्त में ज़्यादातर नाम बिहारी ही मिलेंगे । ऎसे में ये समझ पाना बडा ही मुश्किल है कि राज को गुंडा , आतंकवादी और देशद्रोही करार देने वाले लोग अपने प्रदेश के नेताओं से राज्य के हालात का लेखा जोखा क्यों नहीं मांगते ?

देश - दुनिया के राजनीतिक हालात , और तो और दफ़्तर की उठापटक में घंटॊं सिर खपाने वाले ये धुरंधर आखिर अपने राज्य के दिनोंदिन बदतर होते हालात पर क्यों खामोशी अख्तियार किए हैं । ट्रेनें रद्द करने का यकबयक लिया गया फ़ैसला भी हैरानी में डालने वाला है । राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के दौरान भी तब तक रेल सेवा जारी रही , जब तक हालात हिंसक होकर बेकाबू नहीं हो गये । रोज़ी की जुगाड में अन्य राज्यों में बसे बिहारियों को ऎन दीपावली पर घर लौटने से रोककर आखिर कौन सी सियासती चाल चली जा रही है ।

अगर ये ट्रेनों के ज़रिए राजनीति चमकाने की बेहूदा कोशिश हो रही है , तो इसे पहचान कर तुरंत रोकने की ज़रुरत है ,क्योंकि आखिर में ये बिहार को ही नुकसान पहुंचाने वाला कदम साबित होगा । अगर ये बिहार की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार नेताओं के खिलाफ़ फ़ूटा गुस्सा है , तो काबिले गौर है । बिहार के युवाओं को सियासतदानों से हिसाब मांगना ही होगा अपने भविष्य और अपने अतीत का भी ........।
हम वो राही हैं जो मंज़िल की खबर रखते हैं
पांव कांटों पे , शिगूफ़ो पे नज़र रखते हैं
कितनी रातों से निचोडा है उजाला हमने
रात की कब्र पे बुनियादे सहर रखते हैं

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

राज की सियासत और बिहार की ज़मीनी हकीकत

महाराष्ट्र सरकार के लचर रवैए ने पूरी मुंबई और कई बडे शहरों को आग में झोंक दिया । एक खत्म हो चुके नेता को इतना बडा हो जाने दिया कि अब हालात बेकाबू हो चले हैं । महाराष्ट्र में राज समर्थक और बिहार में राज विरोधियों का उत्पात लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है । कहते हैं समझदार बागबान वही होता है जो बगीचे की खूबसूरती में खलल डालने वाले जंगली पौधों को शुरुआत में ही जड से उखाड फ़ेंके । लेकिन राज के मामले में तो बीज को खाद - पानी देकर दरख्त बनने का मौका दिया गया । पेड के तने को काटने की ज़हमत अब उठाई है ,जब उस पर फ़लों की आमद हो चुकी है ।
इस बीच बिहार के कई शहरों में राज के खिलाफ़ नफ़रत की आग ज़ोर पकडने लगी है । लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वहीं का वहीं है । आखिर क्यों बिहार से दूसरे राज्यों को जाने वाली ट्रेनें खचाखच भरी रहती हैं ? गंगा किनारे की उपजाऊ ज़मीन जो पूरे देश का पेट भर सकती है , वहां लोगों को भूखे पेट सोना पडता है । बहुमूल्य खनिज संपदा से जिस इलाके को कुदरत ने नवाज़ा हो , वहां का आम आदमी अपनी पहचान और दो जून की रोटी की तलाश में भटकता है ।
नेपाल की सडकें हों या मुम्बई या फ़िर चैन्नई हर जगह मायूसी और बेचारगी से भरे कुछ चेहरे आपको दिख जाएंगे । उबले चनों की चाट या सब्ज़ी का ठेला चलाते ये लोग किसी बडॆ हसीन खवाब की तलाश में घर से दूर नहीं आते । वो क्या कारण हैं कि ये लोग इतने छोटे - छोटे कामों की तलाश में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करने को मजबूर हैं ।
मौर्य और नंद वंश के वैभवशाली इतिहास के गवाह बने इस इलाके के मौजूदा हालात के लिए यहां के नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं । धाकड नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त देने वाला बिहार इन्हीं नेताओं की बेरुखी की सज़ा भुगत रहा है । नैसर्गिक संपदा के अथाह भंडार का प्रदेश की जनता के हित में यदि सदुपयोग नहीं हो सका ,तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
लालू यादव जब तक प्रदेश में राज करते रहे उन्हें कभी बिहारियों की सुध नहीं आई । रेल मंत्री बनते ही बिहार के बेरोज़गार युवाओं के उद्धार के इस जनसेवी कदम की हकीकत कुछ और ही है । छन - छनकर आने वाली खबरें बताती हैं कि रेलवे में अपना भविष्य तलाशने वाले युवाओं को खेत , ज़मीन और मकान के रुप में कीमत चुकाना पडी है । बिहार में नेताओं और अफ़सरों के गठजोड ने आम आदमी को पलायन के लिए मजबूर किया है । बिहार ने देश को कई प्रतिभावान पत्रकार दिए हैं लेकिन बेहद अफ़सोसनाक पहलू ये भी है कि यहां के हालात में रद्दो बदल पर ईमानदारी से अब तक किसी ने कलम नहीं चलाई ।
और अब कुछ तथ्य आंकडों की ज़ुबानी -
१ . २००१ की जनगणना के मुताबिक़ दिल्ली की आबादी १ करोड़ ३७ लाख के क़रीब , इसमें २७ लाख से अधिक बिहारी ।
२ २००१ में बिहार की आबादी ८ करोड़ २८ लाख ७८ हजार ।
३. मोटे तौर बिहार के साढ़े तीन फीसदी लोग अकेले दिल्ली में आ बसे ।
४. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग बिहार से बाहर जाते हैं
५। फ़िलहाल कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं ।
जिस बात का खतरा , सोचो कि वो कल होगी
ज़रखेज़ ज़मीनों में बीमार फ़सल होगी
स्याही से इरादों की तस्वीर बनाते हो
गर खून से बनाओ , तो तस्वीर असल होगी ।